बंजर जमीन। घास-फूस से बने झोपड़ीनुमा घर। सिर और कमर पर पानी का कलसा उठाए आती-जाती महिलाएं। दूर से देखने पर यह नजारा किसी खूबसूरत पेटिंग सा दिखता है, लेकिन करीब आने पर इसकी हकीकत उतनी ही स्याह है।
कहने को ये महिलाएं शादीशुदा हैं। पति और भरा-पूरा परिवार है, लेकिन ये ना तो मां बन सकती हैं ना पति की संपत्ति पर इनका कोई हक है। ये महिलाएं पत्नी हैं, लेकिन सिर्फ पानी भरने के लिए। पानी भरते-भरते कई महिलाएं जख्मी हो गईं, बीमार रहने लगीं, लेकिन उनके हालात नहीं बदले।
ब्लैकबोर्ड सीरीज में इन्हीं महिलाओं से मिलने मैं महाराष्ट्र के ठाणे जिले के डेंगनमल गांव पहुंची...
दोपहर का वक्त। मैं गांव के एक घर में घुसती हूं। मिट्टी और बांस से बने घर में सजावट के नाम पर दो-तीन तस्वीरें दीवार पर टंगी हैं। इनमें से एक तस्वीर में साकाराम भगत यानी घर के मुखिया सजी-धजी तीन औरतों संग बैठे हैं। ये तीनों औरतें साकाराम की पत्नी हैं। बाकी तस्वीरों में पहली पत्नी और बच्चे हैं। पहली पत्नी से 6 बच्चे हैं, लेकिन बाकी दो से एक भी नहीं।
ऐसा नहीं कि ये दोनों बच्चे पैदा नहीं कर सकती थीं, लेकिन इन्हें इजाजत नहीं मिली, क्योंकि ये 'वाटर वाइव्स' हैं यानी पानी भरकर लाने के लिए लाई गईं पत्नियां। यहां के लोग इन्हें 'पानी वाली बाई' बुलाते हैं। इन्हें शादी का दर्जा नहीं मिलता।
साकाराम घर में सुस्ता रहे थे। पहली पत्नी तुकी जंगल से लकड़ियों का गठ्ठर लाकर रखती हैं और फिर पति के पास बैठ जाती हैं। पास ही चौखट की ओट से दूसरी पत्नी साखी खड़ी मुझे देख रही हैं। उनकी आंखों में मुझको लेकर सवाल हैं कि मैं कौन हूं और कहां से आई हूं, कहीं मैं उन्हें उनके पति से अलग करने वाली तो नहीं हूं?
तीसरी पत्नी रमा देवी की तबीयत कई दिनों से ठीक नहीं है, इसलिए वे बगल वाले कमरे में आराम कर रही हैं। इन दिनों रमा का भी काम तुकी और साखी को करना पड़ रहा है।
गांव के मर्द पानी के लिए कई पत्नियां लाते हैं, जब यह बात गांव से बाहर गई, तो नेता डराने-धमकाने आए। गांव को बदनाम करने के आरोप लगे। शादी रद्द कराने की धमकी मिली। इसी वजह से साकाराम मुझसे बात करने के लिए पहले मना कर देते हैं। फिर समझाने पर राजी हो जाते हैं।
साकाराम की पहली पत्नी तुकी पति की दूसरी शादी की कहानी बताती हैं...
'' नई-नई शादी हुई थी। पति खेती-किसानी के लिए निकलते तो दिन ढलने के बाद लौटते। सुबह जागती। झाड़ू लगाती। पानी लाती। खाना पकाती। बकरी चराती। फिर पानी लाती। दो साल बाद पहली औलाद हुई।
इसके बाद दूसरी, तीसरी, चौथी...और फिर छठवीं। तब मुझे पानी लाने में दिक्कत होने लगी। गांव में कोई नल या तालाब भी नहीं है। 7 किलोमीटर से हमें पानी लाना पड़ता था।
एक दिन अचानक पति दूसरी पत्नी लेकर आ गए। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि वे ऐसा करेंगे। कई दिनों तक मैं उनसे नाराज रही। बात नहीं करती थी। फिर उन्होंने मुझे समझाया कि अगर वे पानी लाने जाते तो खेती-किसानी कौन करता, पैसा कहां से आता, हम सब क्या खाते? मुझे भी लगा कि वे ठीक ही कह रहे हैं।''
मैं साखी से पूछती हूं कि दूसरी पत्नी बनने के लिए आप क्यों राजी हुईं?
साखी कुछ देर चुप रहती हैं। सवाल टालने की कोशिश करती हैं। फिर कहती हैं- अकेली रहती थी, इसलिए इनसे शादी के लिए राजी हो गई।
क्यों आपके परिवार में कोई नहीं था?
साखी कहती हैं, 'पहले भी शादी हुई थी, लेकिन पति छोड़कर चला गया। मायके में भी कोई नहीं था, जहां चली जाती। ऐसे में जब इन्होंने शादी के लिए कहा तो राजी हो गई।
शादी बाद यहां आई तो तुकी खाना पकाती और मैं पानी भरकर लाती थी। हर रोज सुबह निकल जाती। शाम ढलने तक पानी लाने का काम करती। दिनभर में 60 से 80 लीटर पानी लाती। पहले तो दिक्कत नहीं हुई, लेकिन बाद में इसका असर दिखने लगा। मैं बीमार रहने लगी। कमर में दर्द बैठ गया। पानी लाने में दिक्कत होने लगी।'
साखी जब बीमार रहने लगीं तो साकाराम ने एक और शादी कर ली। उनकी तीसरी पत्नी रमा हैं। तुकी अब भी खाना पकाती हैं और घर के बाकी काम निपटाती। साखी खेतों में मजदूरी करती हैं और पानी लाने की जिम्मेदारी रमा की है। पानी के लिए 24 घंटे पहले बर्तन रखने जाना पड़ता है।
साखी और रमा के बच्चे क्यों नहीं हैं?
साकाराम बोल पड़ते हैं- तुकी के बच्चे भी तो इन दोनों के ही बच्चे हैं। अगर ये दोनों भी बच्चे पैदा करती तो फिर पानी भरकर कौन लाता।
आपको नहीं लगता कि आपने इन्हें हक ना देकर गलत किया है?
साकाराम कहते हैं- नहीं। मैं जवान या कुंवारी लड़कियों को पत्नी बनाकर नहीं लाया। मैंने बेसहारा औरतों को सहारा दिया। इसलिए गलत जैसा क्या है!
क्या यहां किसी ने इस पर आपत्ति नहीं जताई?
साकाराम कहते हैं, 'आसपास के कई गांवों में भी इस तरह की शादिया हुईं हैं। गांव की पंचायत को पुरुषों की एक से ज्यादा शादियों पर कोई ऐतराज कभी नहीं रहा। पंचायत भी मानती कि उन्होंने बेसहारा महिलाओं को सहारा दिया है।'
बिना बच्चों के रहने का दु:ख नहीं होता?
साखी कहती हैं, 'कौन औरत बिना बच्चा के रहना चाहती है। हम भी मां बनना चाहते थे, लेकिन क्या कर सकते हैं। हमारी भी मजबूरी है। खाने-पीने रहने को मिल जा रहा है, इसी से सब्र कर लेते हैं।'
साकाराम के घर से निकलने के बाद मेरी मुलाकात पानी वाली बाई वंदना जयराम से होती है।
वंदना बताती हैं, 'सुबह उठने से लेकर रात में सोने तक बस कलसा भर-भरकर पानी लाना है। गर्मियों में रात-रात भर पानी ढोना होता है। लगातार चलते रहने के कारण गर्दन-कमर पैर में हर वक्त दर्द रहता है। दमा की रोगी हो गई हूं। शरीर बीमारियों का घर बन गया है, लेकिन क्या करें, पानी तो लाना ही होगा।'
दो-दो, तीन-तीन बीवियां साथ कैसे रहती हैं?
वंदना कहती हैं- होती है न लड़ाई। गाली-गलौज, कभी-कभी तो मारामारी भी हो जाती है और फिर हंस देती हैं। बातचीत में मालूम पड़ता है कि वंदना को अब घर और बाहर दोनों जगह संभालना पड़ता है, क्योंकि पति की पहली पत्नी की कोरोना से मौत हो गई है।
इसके बाद मैं गांव के कई घरों में गई, लेकिन लोगों ने पुलिस और मीडिया में खबर छपने के डर से बात करने से मना कर दिया। महिलाओं को उनके पति से डर भी है कि शिकायत करने पर कहीं वे मार-पीट न करने लगें। घर से निकाल न दें। ऐसे में वे फिर किसके पास जाएंगी।
इसके बाद मैं गांव के सरपंच से मिलने पहुंची, लेकिन वो घर में नहीं थे। आगे बढ़ने पर मेरी मुलाकात पूर्व सरपंच गणेश तुपांगे से हुई।
मैंने उनसे जब पानी वाली बाई के बारे में पूछा तो वे गोलमोल जवाब देने लगे। उन्होंने कहा कि गांव के कुछ ही मर्दों ने दूसरी शादी की है। जिसको दिक्कत होगी वो शिकायत करेगा। आप क्यों इसे मुद्दा बना रही हैं।
करीब 500 लोगों की आबादी वाला यह गांव सालों से पानी के लिए जूझ रहा है। जबकि मुंबई को पानी पहुंचाने वाला बस्ता डैम महज 8 किलोमीटर की दूरी पर है। इस डैम का पूरा पानी पाइपलाइन के जरिए मुंबई वालों को मिलता है, लेकिन डैम को बनाने वाली महिलाएं एक-एक बूंद के लिए मोहताज हैं।
महाराष्ट्र में जल संकट पर काम करने वाले और जलभूषण सम्मान से सम्मानित डॉ. प्रवीण महाजन कहते हैं कि बास्ता नदी पर बने डैम से पानी गांव लाने की जिम्मेदारी ग्राम पंचायत की है, लेकिन उनका बजट कम है। उन्हें महाराष्ट्र सरकार से मदद मांगनी चाहिए।
इस इलाके के विधायक दौलत दरौदा कहते हैं कि जल जीवन मिशन के तहत हर घर पानी पहुंचाने की योजना पर तेजी से काम चल रहा है। उम्मीद है कि मई, 2024 तक गांव वालों को पानी मिल जाएगा। वहीं शाहपुर तालुका की तहसीलदार नीलिमा सूर्यावंशी का कहना है कि उन्हें इस मामले की जानकारी नहीं है।
अब ब्लैकबोर्ड सीरीज की इन तीन कहानियों को भी पढ़ लीजिए
1. हमारी ही बेटी से गैंगरेप और हम ही कैद हैं:बेटी की जान गई, बेटे को नौकरी नहीं दे रहे; गांव वाले उल्टा हमें ही हत्यारा बोलते हैं
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छुटकी पेट में थी, जब वो बॉम्बे (मुंबई) चले गए। एक रोज फोन आना बंद हुआ। फिर खबर मिलनी बंद हो गई। सब कहते हैं, तीज-व्रत करो, मन्नत मांगो- पति लौट आएगा। सूखे पड़े गांव में बारिश भी आ गई, लेकिन वो नहीं आए। मैं वो ब्याहता हूं, जो आधी विधवा बनकर रह गई। इंटरव्यू के दौरान वो नजरें मिलाए रखती हैं, मानो पूछती हों, क्या तुम्हारी रिपोर्ट उन तक भी पहुंचेगी! (पूरी रिपोर्ट पढ़िए)
3. लड़कियां लोहे के दरवाजों में बंद हैं:रात 2 बजे दिन की शुरुआत; बाबा कृष्ण बनकर, लड़कियों को रास रचाने के लिए उकसाता था
इस रिपोर्ट में कोई सिसकी नहीं। कोई डबडबाई आंख यहां नहीं दिखेगी। न कोई चीख मारकर रोएगा, न खतरे गिनाएगा। यहां सिर्फ एक इमारत है। बंद दरवाजे और लड़कियां हैं। दुनिया से कट चुकीं वो लड़कियां, जो यूट्यूब पर 'बाबा' के वीडियो देखकर घर छोड़ आईं और रोहिणी के एक आश्रम में कैद हो गईं। वो कैदखाना, जहां से बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं। (पढ़िए पूरी खबर)
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