बहन के गैंगरेप को दो साल बीते। तब से हम घर पर हैं- होम अरेस्ट! जवान हैं, लेकिन नौकरी पर नहीं जा सकते। बेटियों को स्कूल नहीं भेज सकते। तीज-त्योहार आए- चले गए। न कोई बधाई आई, न आंसू पोंछने वाले हाथ। बहन की अस्थियां इंतजार में हैं। हमारी जिंदगियां इंतजार में हैं। इंसाफ मिले, तो वक्त आगे बढ़े।
ये वो घर है, जहां वक्त दो साल पहले के सितंबर में अटका हुआ है। चेहरे पर मास्क लगाए युवक कई बातें कहता है। कुछ कैमरे पर, कुछ पीछे। जब हम बात कर रहे हैं, CRPF के हथियारबंद जवान साथ खड़े हैं।
नवंबर 2020 में गेरू और गोबर से लिपा ये अधकच्चा मकान एकदम से छावनी में बदल गया। लोगों को सुरक्षा की जरूरत थी। क्यों! क्योंकि यहीं पर दलित समुदाय की वो युवती रहती थी, कथित गैंग रेप के बाद जिसकी मौत हो गई। बात यहीं नहीं रुकी। रातों-रात उसकी लाश जला दी गई। परिवार की गैर-मौजूदगी में।
महीनों गहमागहमी रही। कभी नेता आते, कभी NGO वाले। फिर सिलसिला थम गया। अब हाथरस के बूलीगढ़ी में कुछ नया नहीं। तकरीबन 1 हजार की आबादी वाले इस गांव में रविवार की सुबह भी न तो ताजी हवा है, न ताजी हंसी। घरों से बाहर इक्का-दुक्का लोग दिखते हैं, जो मीडिया सुनते ही किवाड़ बंद कर देते हैं।
इन्हीं बंद दरवाजों और खाली रास्तों से गुजरते हुए हम पीड़ित परिवार के घर पहुंचे। चारों ओर CCTV कैमरे। पहुंचते ही नाम-पता दर्ज होगा। कार्ड टटोला जाएगा। कुछ फोन कॉल्स होंगे, जिसके बाद तय होगा कि आप भीतर जा सकने लायक हैं, या नहीं।
अकेले किसी हाल में नहीं, हथियारबंद दस्ता साथ चलेगा। इंटरव्यू के दौरान साथ रहेगा। वापसी पर दस्तखत के बाद ही विदा मिल सकेगी। सवाल उतने ही, जितने में भरभराकर कुछ अनाप-शनाप न निकल जाए। जवाब भी नपे-तुले। अनकहा बताने की कोई छूट नहीं, लेकिन माहौल सारी चुगली कर देता है।
जिस आंगन में हम बैठे हैं, वहां चारा काटने की मशीन रखी है। मैं गौर से देखती हुई पूछती हूं, इसमें जंग कैसे लग गई! उधर से जवाब आता है- दो साल से घर में बंद रहते-रहते हम पर जंग लग गई, तो मशीन क्या चीज है!
मृतका के बड़े भाई सामने बैठे हैं। कहते हैं- कोविड के समय हादसा हुआ। नौकरी छूटी। अब इंटरव्यू भी दो, तो कोई काम पर नहीं रखता। बगैर चेहरा दिखाए पहचान साथ चलती है। जान का खतरा है, सो अलग। छोटा भाई और मैं दोनों घर बैठे हैं। कोई इमरजेंसी हो या पेशी पर जाना हो, तो ही बाहर निकलते हैं। पार्टी-फंक्शन, चौपाल पर बैठना- सब खत्म।
छोटा भाई पास खड़ा है। उसे देखती हुई पूछती हूं- तब दिनभर क्या करते हैं? क्या करेंगे! एक भैंस है, उसी का चारा-पानी करते और घर भर में घूमते रहते हैं। दिन बीतता ही नहीं।
तीन कमरे, आंगन, दालान और छत से बना मकान! 7 लोग यहां तकरीबन 7 सौ दिनों से बंद हैं। 14 सितंबर 2020 को इसी घर से कुछ सौ मीटर दूर एक खेत में युवती की लहूलुहान देह उसकी मां को मिली। 15 दिन बाद अस्पताल में उसकी मौत हो गई। परिवार का आरोप है कि गांव के ही 4 सवर्ण युवकों ने उसका बलात्कार किया था।
वहीं गांव के बहुत-से परिवार फुसफुसाते हुए इसे ऑनर किलिंग बताते हैं। इस जिक्र पर मृतका के भाई कहते हैं- CBI जांच भी हो गई। इसके बाद भी कोई ऐसी बात करे, तो क्या कर सकते हैं! हैवान सबको हैवानियत की नजर से ही देखेगा।
तीसेक साल के इस जवान की आवाज शांत है। थकान और ऊब से आई शांति। इस सवाल का जवाब वे शायद हजार बार दे चुके, और हजार बार देना बाकी है।
भाई से बातचीत चल ही रही थी तभी हाथ का काम निबटाकर आंचल से मुंह पोंछते हुए मृतका की भाभी आती हैं। मंझोले कद वाली इस महिला के छुए-अनछुए कई दर्द हैं। दुलारी ननद गईं, साथ में मन का एक कोना सूखा कर गईं।
वे याद करती हैं- अगस्त के आखिर में बेटी हुई और थोड़े दिन बाद दीदी के साथ हादसा हो गया। मैं अस्पताल जाने के लिए खूब रोई, लेकिन कोविड के मारे सबने मना कर दिया। फिर कभी अपनी ननद को देख ही नहीं पाई।
पास ही वो बच्ची खेल रही है। गोबर से लिपे आंगन में यहां-वहां डोलती इस बेटी ने बाहर की दुनिया नहीं देखी। वो तीन-चार कमरों के इस मकान को ही संसार जानती है। उसे नहीं पता कि घर के लोग बाहर जाकर नौकरी भी करते हैं। वो बाजार-पार्क भी जाते हैं। वो ये भी नहीं जानती कि उसकी सबसे बड़ी बहन उनके साथ क्यों नहीं रहती।
मृतका की आखिरी याद! हां! मैं जचकी (हाल में संतान को जन्म दिया) से थी, तो सारे काम दीदी (मृतका) ही करतीं। उस सुबह खेत जाने से पहले चाय देते हुए कहा कि मुझे सपना आया है, गांव में आग लग गई और सब यहां-वहां भाग रहे हैं। मैंने टोककर अच्छा सपना बताने को कहा, तो वो हंसती हुई चली गईं। लौटते में अम्मा (सास) के लिए दवा भी लानी थी। वही आखिरी बार उनको देखा।
अब इमरजेंसी में बाहर जाना ही पड़े, तो खेत से नजर नहीं हटती। लगता है कि दीदी अभी कहीं दिख जाएंगी। आवाज देते हुए अच्छा सपना सुनाएंगी।
इंटरव्यू के बीच में मृतका की अस्थियों का जिक्र आता है, जो इंसाफ के बाद ही नदी में प्रवाहित होंगी। मैं देखने की इच्छा जाहिर करती हूं, तो हाथ से बरजते हुए बड़े भाई कहते हैं- वो हम नहीं दिखा सकते। जब न्याय होगा, तभी उसकी अस्थियां भी बाहर आएंगीं।
रातोंरात, बिना किसी रस्म के आग के हवाले कर दी गई मृतका की लगाई तुलसी ही वो आखिरी चीज है, जो इस घर में लहलहा रही है। उसे देखते हुए मां बताती हैं- बड़े नेग-धरम वाली थी मेरी बेटी। तुलसी में पानी दिए बिना मुंह में कौर नहीं डालती थी। अभी नवरात्रि आ रही है। बाकी लोग फल-फूल खा लेते, वो ऐसे ही नौ दिन काटती थी।
बोलते-बोलते रो पड़ती हैं। ठुड्डी से नीचे सरक आए आंचल के नीचे भी सुबकियां दिख रही हैं। उस मां की सुबकियां, जिसकी बेटी की लाश उसे बताए बिना जला दी गई। उस मां की रुलाई, जो आखिरी वक्त पर अपनी मरी हुई बेटी का माथा नहीं चूम सकी।
घर से निकलकर हम घटनास्थल पर पहुंचते हैं। सामने चारा रखने की कुटिया बनी है। उसी कोने में दो साल पहले लड़की की लहूलुहान देह मिली थी।
अब वहां खून का कोई निशान नहीं। चीखें भी कबकी हवा में घुल चुकीं। तब उसे चोट पहुंचाते हाथ भी अब गायब हैं। सामने वो जमीन है, जो अपनी हरियाली से हादसे की हर याद मिटा देना चाहती है। जमीन के बारे में पता लगता है कि गांव के ही किसी शख्स के रिश्तेदार की है। शुरुआत में सन्नाटा रहा, अब बुआई-कटाई सब होती है।
पीड़िता के घर से निकलने के बाद हमारी मुलाकात हुई पक्ष के वकील मुन्ना सिंह पुंधीर से। उनका तर्क पीड़िता का दर्द कुरेद देता है।
इसको लेकर वे तीन तर्क देते हैं-
गांव की सीमा खत्म होते-होते साइकिल पर एक बुजुर्ग आता दिखा, जो चार आरोपियों में से एक का पिता है। पनियाई आंखों और झुर्रियों से भरा चेहरा-आंखें। जानकारी न हो, तो इस चेहरे को देखकर ठंडा पानी- गुड़ खिलाने को जी चाहे। इतने मुलायम और निरीह चेहरे का भी तर्क ‘अफेयर’ पर जाकर अटक गया।
ऑन-कैमरा कुछ भी कहने से इनकार करते हुए कहते हैं, 'आप तो मेरी बेटी की उम्र की हैं। कहना अच्छा नहीं लगता, लेकिन लड़की का 'कुछ' था। उसके घरवालों को पता लगा, तो गुस्से में इतना मारा कि अधमरी हो गई और फिर मौत हो गई। एक और बात- परमात्मा सब देख रहा है। वो जब न्याय करेगा, तो सब देखते रह जाएंगे।'
इसी बीच साइकिल पर दो बच्चे आ लटकते हैं, जो उनके पोते थे। उनकी तरफ देखकर कहते हैं- जवान बेटा जेल में है। बूढ़ा बाप उसके बीवी-बच्चे पालने के लिए मजदूरी करता भटक रहा है। पता नहीं और कितनी परीक्षा देनी होगी!’
आरोपियों का परिवार शुरुआत में लगातार गुहार लगाता रहा, लेकिन अब सबने चुप्पी साध ली है। कितना ही कुरेदो, चुप रहेंगे।
हम हाथरस के आखिरी कोने पर पहुंच चुके हैं। आखिरी दुकान! गैंगरेप की चर्चा पर दुकानदार तपाक से पूछता है- आप किस जगह से हैं? फिर आगे कहते हैं- घटनाएं कहां नहीं होतीं। आपके मुंबई-दिल्ली में क्या रेप नहीं होते! बदकिस्मती है कि हमारा शहर बदनाम हो गया।
मैं कैमरा पर ये बातें बोलने को कहती हूं, तो मना करते हुए तुरंत हींग की डिबिया निकालकर काउंटर पर सजा देते हैं। कहते हैं- हाथरस की यही पहचान है। छौंक लगाएंगी तो ‘घटना-वटना’ भूल जाएंगी।
(इंटरव्यू कोऑर्डिनेशन- शुभम गुप्ता)
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चलते-चलते ब्लैकबोर्ड सीरीज की ये 3 स्टोरीज भी पढ़ लीजिए...
वो स्कूल जहां अचानक चीखने लगीं लड़कियां:किसी ने अपना चेहरा लहूलुहान कर डाला, तो कोई दीवार पर सिर पटकने लगी
जुलाई में मैदानी लोग जब चाय के साथ बारिश की तस्वीरें डाल रहे थे, तभी उत्तराखंड का बागेश्वर जिला चीखों से दहल उठा। स्कूली बच्चियों की चीखें। अपने ही चेहरों को नोंचती और दीवारों पर सिर पटकती इन लड़कियों को भभूति देकर ‘शांत’ किया गया। डॉक्टरों ने इसे मास हिस्टीरिया कहा, तो गांववालों ने ऊपरी साया। बीमारी एक से दूसरे स्कूल तक फैलती चली गईं। क्या और क्यों हुआ- कोई नहीं जानता। (पूरी स्टोरी पढ़ने के लिए क्लिक करें)
2. पाकिस्तान में रात-बिरात बेटियां उठा ली जातीं : जबरन निकाह रचाते, भारत में सुकून है; लेकिन हरा पासपोर्ट देख कोई काम नहीं देता
पाकिस्तान से धार्मिक वीजा पर भारत आए हिंदू शरणार्थी गुजरात-राजस्थान के अलावा दिल्ली में भी बसे हुए हैं। ‘बसे हुए’ यानी- जहां मलबा फेंका जाता है, उस जमीन के एक कोने को झाड़-बुहारकर कच्ची झोपड़ियां बना डालीं। बारिश में नाले के पानी के साथ इनके आंगन में सांप-बिच्छू भी डोलने लगते हैं। अस्पताल में भर्तियां नहीं होतीं और न ही कोई काम देता है, क्योंकि आखिर नमक तो इन्होंने पाकिस्तान का खाया है। (पढ़िए पूरी कहानी)
3. छोटी-सी थी, जब पहली बार पापा ही मेरे लिए कस्टमर लेकर आए, कहा- यही रिवाज है, तब से रोज रेप झेल रही हूं
‘पंद्रह की थी, जब हाईवे पर खड़ी होकर कस्टमर बुलाने शुरू किए। आज सात साल बीते। कभी तबीयत ढीली हो और काम से मना करूं तो मां गुस्सा करती है। बाप मेरी फोटो दिखाकर ग्राहक बुला लाता है और मुझे घर के किनारे वाले कमरे में धकेल देता है। धंधा करना हमारी परंपरा है। पहले मां ने किया, अब मेरी बारी है।’ (पूरी कहानी पढ़ने के लिए क्लिक करें)
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