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उत्तराखंड के चमोली जिले में रविवार को एक बार फिर त्रासदी का मंजर था। ग्लेशियर टूटा और ऋषि गंगा-धौली गंगा नदियों का कहर लोगों ने देखा। दो हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट तबाह हुए और 197 लोग लापता हैं। पानी और मलबे के उफान ने 2013 की उत्तराखंड त्रासदी का मंजर सामने ला दिया। हिमालय क्षेत्र में बार-बार उत्तराखंड में त्रासदी क्यों? इसकी चार बड़ी वजह हैं।
पहली वजहः हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के लिए नदियों पर बनाए गए बांध
हाइड्रोपावर उत्पादन में भारत पांचवें नंबर पर है। केवल चीन, ब्राजील, अमेरिका और कनाडा जैसे देश इससे आगे हैं। भारत में 197 हाइड्रोपावर प्लांट हैं, जो कुल 45,798 मेगावॉट यानी देश की 12% से ज्यादा बिजली का उत्पादन करते हैं। इनमें से 98 केवल उत्तराखंड में हैं। अभी 41 बन रहे हैं और 197 प्रस्तावित हैं। दरअसल, 2013 में ही यहां कुल 336 हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट को अनुमति मिल चुकी थी।
जियोलॉजिस्ट नवीन जुयाल कहते हैं, 'करीब 300 साल पहले इंसान ने पहाड़ से कमाई करने की सोची। नदियों के पानी को कमाई का जरिया बना लिया। जल विद्युत परियोजनाएं लगने लगीं। ये गलत नहीं थीं। सरकार और कंपनियों को पैसे मिलते और लोगों के घरों में बिजली पहुंचती, लेकिन भूख बढ़ती गई। बड़े-बड़े बांध बना कर नदियों के स्वाभाविक बहाव को रोक दिया। इससे पेट नहीं भरा, फिर छोटे बांध बनाने लगे। बीते 20 सालों में नदियों का गला घोंटकर बिजली पैदा करने वाले प्रोजेक्ट खड़े किए गए हैं।’
जुयाल कहते हैं, ‘हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट लगाने के लिए जंगल तो काटा ही जाता है, सैकड़ों मीटर ऊंचाई पर बांध बनाए जाते हैं, जब कभी ये बांध टूटते हैं तो इनसे तबाही आना तय होती है। उच्च हिमालय में नदियों के पानी के बहाव को रोकना, आज नहीं तो कल तबाही का कारण बनेंगे।’
साइंटिस्ट डॉ. संतोष राय बताते हैं, 'हिमालय सबसे नई और कमजोर पहाड़ी श्रृंखला है। यहां से गुजरने वाली नदियों में पानी के साथ पत्थर के टुकड़े भी बहते हैं। बांध में लगातार गाद भरता जाता है। जब बांध टूटते हैं तो केवल पानी बहकर नहीं आता, बहुत बड़ी मात्रा में गाद भी आता है, जो तबाही का कारण बनता है।'
दूसरी वजहः NH और चारधाम प्रोजेक्ट के लिए पहाड़ और जंगल को काटना
उत्तराखंड का चार धाम प्रोजेक्ट अंतिम चरण में पहुंच चुका है। इससे केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को आपस में जोड़ा जा रहा है। इसमें 889 किलोमीटर टू-लेन हाईवे बन रहा है। इसमें 12 बायपास रोड, 15 बड़े फ्लाईओवर, 101 छोटे पुल, 3,596 पुलिया और दो टनल बनाई जा रही हैं। इसके लिए करीब 56 हजार पेड़ काटने पड़े। 1702 एकड़ जंगल की जमीन दूसरे काम के लिए ट्रांसफर कर दी गई। इसके एवज में 2997 एकड़ जमीन पर 10 लाख पौधे लगाए जा रहे हैं। जियोलॉजिस्ट उत्तराखंड के पहाडों के साथ होने वाली इन दोनों बातों को प्रकृति के साथ खिलवाड़ बताते हैं।
चारधाम प्रोजेक्ट से होने वाले नुकसान के लिए सुप्रीम कोर्ट ने रवि चोपड़ा कमेटी बनाई थी। इसके सदस्य जियोलॉजिस्ट डॉ. रवि जुयाल कहते हैं, 'करीब 900 किलोमीटर की इस सड़क को 52 टुकड़ों में बनाया जा रहा है। 70 से ज्यादा ठेकेदारों से एक जैसा काम नहीं लिया जा सकता। सब अपने हिसाब अपने नियम बनाते रहते हैं। इस प्रोजेक्ट में कई बार सुधार भी हुए हैं। शुरुआत में इसे आम सड़क के मानक के आधार पर 12 मीटर चौड़ी बनाने का प्रस्ताव पास हो गया था, फिर 10, 7 और अब 5.5 मीटर की ही सड़क बननी है।
जुयाल बताते हैं, ‘हमारे यहां सबसे बड़ी गाड़ी वॉल्वो बस है। इसकी चौड़ाई 2.44 मीटर होती है। टू-लेन के लिए 12 मीटर की सड़क बनाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि इसके लिए 20 मीटर से अधिक पहाड़ काटने पड़ेंगे, जंगल काटने पड़ेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने हमारी रिपोर्ट के आधार पर सड़क को 5.5 मीटर की बनाने को कहा, लेकिन इसे नाकाफी बताते हुए फिर से सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया है।'
जुयाल के अनुसार, ‘पेड़ ही वो मजबूत कड़ी है जो पहाड़ की मिट्टी और चट्टान को खिसकने नहीं देता। पेड़ों की जड़ और तने पहाड़ के भीतरी हिस्से में मिट्टी को मजबूती से बांधे रखते हैं। जैसे-जैसे पेड़ काटे जाएंगे, पहाड़ कमजोर होते जाएंगे, भूस्खलन यानी पहाड़ टूटकर गिरने की घटनाएं बढ़ेंगी। इसके बावजूद इंसान पेड़ काटने को इतना उतावला है कि 1980 में जंगल काटने पर रोक लगाना पड़ा, लेकिन डेवलपमेंट के नाम पर पहाड़ और पेड़ काटकर कहीं और जंगल बसाया जाने लगा। ये दोनों चीजें प्रकृति का संतुलन बिगाड़ती हैं।
2014 से 2018 के बीच उत्तराखंड में 983 किमी तक नेशनल हाईवे का विस्तार हुआ है। इसके लिए भी भारी मात्रा में पेड़ और पहाड़ काटे गए। वरिष्ठ पत्रकार सुशील बहुगुणा कहते हैं कि भले ही दूसरी जगह पर पेड़ लगाए जा रहे हों, लेकिन अक्सर पहाड़ काटकर ठेकेदार सही तरीके से मलबा नहीं हटवाते। बारिश के दिनों में वह बहकर नीचे जाता है और सड़कें जाम होने की खबरें आती हैं।
तीसरी वजहः रोपवेज के जरिए डेवलेपमेंट का सपना
2018 से पहले भारत में करीब 65 रोपवेज थे। मार्च 2018 में नीति आयोग ने एक ड्राफ्ट पेश किया जिसमें राज्य सरकारों को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) के जरिए रोपवे प्रोजेक्ट तैयार करने के दिशा-निर्देश दिए गए। इसके बाद हिमालय क्षेत्र में करीब 21 नए रोपवे प्रोजेक्ट्स के प्रस्ताव पर काम चल रहा है। इनमें उत्तराखंड के 11 और हिमाचल प्रदेश के 10 प्रोजेक्ट्स शामिल हैं।
रिसर्चर मानसी एशर के मुताबिक पारंपरिक रोपवेज स्थानीय लोगों की सुविधा के लिए बनाए जाते थे, लेकिन नए रोपवेज को टूरिज्म और कमर्शियल उद्देश्यों के इस्तेमाल के लिए बनाया जा रहा है। एशर का कहना है कि रोपवेज आमतौर पर डेवलपमेंट की शुरुआती कड़ी हैं। मसलन हलद्वानी-नैनीताल रोपवे बनने से होटल, फास्ट फूड कोर्ट, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स और पार्किंग भी बनेगी। हिमालय के ईकोलॉजी पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किए बिना ऐसे हिलटॉप को टूरिज्म के लिए खोल देना सही नहीं है।
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक रोपवे से पड़ने वाले प्रभावों की एक लंबी सूची है। जैसे- ड्रेनेज पैटर्न में बदलाव, मिट्टी का क्षरण और प्रदूषण, जंगलों को नुकसान, जमीनी पानी का दोहन, वाहनों और जनरेटर्स से कार्बन उत्सर्जन और ऐतिहासिक धरोहरों को नुकसान।
चौथी वजहः प्रकृति के निशाने पर भी है उत्तराखंड
बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (BHU) में जियोलॉजी के प्रोफेसर बीपी सिंह उत्तराखंड के सबसे ज्यादा खतरनाक होने की वजह मेन सेंट्रल थ्रस्ट (MCT) और मेन बाउंड्री थ्रस्ट (MBT) को बताते हैं। हिमालय क्षेत्र में आने वाले ज्यादातर भूकंप MCT और MBT के बीच के 50 किमी चौड़े क्षेत्र में आते हैं। इसे हिमालय भूकंपीय बेल्ट कहा जाता है। गढ़वाल और कुमाऊं के इलाके इसी हिस्से में आते हैं। श्रीनगर की हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल यूनिवर्सिटी में जियोलॉजी के प्रोफेसर मोहन सिंह पवार के अनुसार यहां लगभग हर हफ्ते भूकंप महसूस किया जाता है। उसकी तीव्रता 4 के आसपास होती है। दूसरी बड़ी वजह यहां का तेज ढलान वाला पहाड़ी इलाका है।
BHU में ही जियोलॉजी के दूसरे प्रोफेसर रमेश चंद्र पटेल कहते हैं, 'हिमालय हर साल करीब दो मिमी बढ़ता है। यह तिब्बत की ओर बढ़ रहा है। इसके नीचे टेक्टोनिक एक्टिविटीज तेज हैं। इसी वजह से बड़े भूकंप का खतरा बना रहता है। इसके अलावा दो दशकों में ग्लोबल वॉर्मिंग का खतरा बढ़ा है, जिससे ग्लेशियर पिघलने और हिमस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं। हिमालय में उत्तराखंड के इलाके में मानसून के चलते काफी बारिश भी होती है। इसलिए लगातार नमी बनी रहती है, यह भी अपरदन और भूस्खलन की वजह बनती है।'
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