न थी हाल की जब हमें अपने खबर रहे देखते औरों के ऐब ओ हुनर;
पड़ी अपनी बुराइयों पर जो नजर तो निगाह में कोई बुरा न रहा।
आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने जब ये फरमाया तो उन्हें ये अंदाजा नहीं होगा कि वो आने वाले इंडिया की स्किल्स और वोकेशनल ट्रेनिंग की स्टोरी बता रहे थे।
यूथ के लिए, और पेरेंट्स के लिए, आज हम बड़ा मैसेज लाए हैं। इंडिया में वोकेशनल कोर्सेस मास-लेवल पर पॉपुलर नहीं हो पाए। हम देखेंगे क्यों, और कैसे इसे ठीक किया जाए, क्योंकि एक टफ जॉब मार्केट में (जहां नौकरियां कम हैं और सैलरी बढ़ नहीं रही), ये इंडिया की बड़ी आबादी के लिए महत्वपूर्ण है।
पॉपुलर न होने के बड़े कारण हैं
1) इनइफेक्टिव वोकेशनल कोर्सेस
2) सरकारी नौकरी का क्रेज
3) वोकेशनल एजुकेशन = स्कूल ड्रॉप-आउट
4) वर्क का सोशल रिस्पेक्ट एंगल
1) इनइफेक्टिव (कम प्रभावी) वोकेशनल कोर्सेस: इंडिया का वोकेशनल एजुकेशन सिस्टम अपनी मौजूदा स्थिति में बड़ी स्केल पर जॉब्स बनाने में सफल नहीं रहा है। बहुत से कैंडिडेट और रिक्रूटर इन कोर्सेस को अप्रभावी पाते हैं। कुल ट्रेंड कैंडिडेट्स का लगभग पांचवा भाग ही जॉब्स पाने में सफल में होता है। उसमें से भी बहुत थोड़े ही फॉर्मल क्षेत्र में जॉब्स पाते हैं। वोकेशनल कोर्सेस और इंडस्ट्री के बीच डिस्कनेक्ट का प्राइमरी कारण है
(i) यूजफुल कोर्स मटेरियल का अभाव
(ii) कम फंड्स
(iii) डिफाइंड रिजल्ट्स के लिए कोई स्ट्रक्चर ना होना
(iv) इन कोर्सेस के बारे में निगेटिव एटीट्यूड।
आपके लिए मैसेज - ऐसे कोर्स सर्च करें जो इफेक्टिव हों
2) सरकारी नौकरी का क्रेज
इंडिया में गवर्नमेंट जॉब्स में चपरासी, सुरक्षा गार्ड आदि पदों (इनके लिए क्वालिफिकेशन आठवीं या दसवीं कक्षा होती है) की वेकेंसी के लिए पोस्ट ग्रेजुएट, B Tech, MBA और यहां तक कि Ph D के आवेदन आना आम बात है। यूथ में गवर्नमेंट जॉब्स के लिए इतना क्रेज जॉब सिक्योरिटी के कारण है। वेतन के अलावा मिलने वाले बेनिफिट अधिक हैं, सोशल रिस्पेक्ट है, आदि। कुछ के लिए ऊपरी कमाई के मौके भी अट्रैक्शन बन जाते हैं। तो इस दीवानगी के चलते यूथ स्किल्स डेवलप करने के बजाय अपने जवानी के आठ-आठ, दस-दस साल सरकारी नौकरी की तैयारी में लगा देते हैं। कई लोगो की स्थिति तो बहुत खराब हो जाती है, और मैंने एजुकेशन/कॉम्पिटिशन इंडस्ट्री में रहते हुए कई ऐसे लोगो की काउंसलिंग की है, जो अंत में यह कहने लगते हैं कि अब भी यदि सरकारी नौकरी नहीं मिली तो सब बेकार है! (जबकि ये गलत सोच है)।
आपके लिए मैसेज - इस चक्रव्यूह में न फंसे
3) वोकेशनल एजुकेशन को स्कूल ड्रॉप-आउट के साथ जोड़ना: इंडिया में वोकेशनल एजुकेशन में वहीं स्टूडेंट्स प्रवेश लेते हैं जो दूसरी किसी पढ़ाई को करने में केपेबल नहीं हैं, या ऐसा उनके पास चांस नहीं है। बेसिकली, हमने यह मान लिया है कि स्किल्स डेवलपमेंट केवल एकेडेमिक रूप से अक्षम लोगों के लिए है, 'जो पढ़ाई नहीं कर सकता उसे ही अपने हाथ गंदे करने चाहिए'। आप अधिकतर को शहर के कुछ विशेष चौराहों पर काम की तलाश में पाते हैं। ठीक उसी समय देश के लगभग एक-तिहाई बेरोजगार ग्रेजुएट और उसके ऊपर हैं। एक वोकेशनल कोर्स कर के वे जॉब्स ले सकते हैं लेकिन सोशल स्टेटस गिरने का डर उन्हें रोकता है।
आपके लिए मैसेज - फ्री थिंकिंग करें
4) वर्क का सोशल रिस्पेक्ट एंगल: इंडिया में कई सदियों से सोशल सिस्टम (कास्ट और वर्ण) के कारण वर्क का नेचर सोशल रिस्पेक्ट से जुड़ा हुआ है। आज भी व्हाइट कॉलर वर्क (ए.सी. केबिन में टेबल-कुर्सी पर बैठ कर) को ब्लू कॉलर वर्क (जिनको करने से हाथ धूल-मिट्टी से सनते हैं, या फिजिकल लेबर वाले वर्क) से ज्यादा रिस्पेक्ट मिलता है। उदाहरण के लिए यदि किसी टिपिकल इंडियन फादर को अपनी बेटी के लिए लाइफ-पार्टनर चुनने के लिए कहा जाए तो वे किसे चुनेंगे - कैंडिडेट 1 - एक ऐसा आर्किटेक्ट, जो ठीक-ठाक कमाता है या कैंडिडेट 2 - एक कारपेंटर जो कैंडिडेट 1 से ज्यादा कमाता है और पर्सनालिटी में भी उससे अच्छा है? अधिकतर फादर शायद कैंडिडेट 1 को प्रायोरिटी देंगे, क्योकि सोसाइटी में एक आर्किटेक्ट की रिस्पेक्ट कारपेंटर से ज्यादा होती है। इसका असर लोगों की वोकेशनल चॉइसेस पर पड़ता ही है।
आपके लिए मैसेज - प्रोग्रेस के लिए इन बंधनों को तोड़ें
इसके साथ ही अन्य कारण हैं (i) निरंतर सीखने की गुंजाइश की कमी (इंडिया में एक ऐसे व्यक्ति को जो हमेशा कुछ नया सीखने के लिए दिन-रात मेहनत में लगा रहता है, उसे बेचारा समझा जाता है!) और (ii) जागरूकता की कमी (यूथ को पता ही नहीं होता कि किसी फील्ड में स्कोप है)।
आजादी के 75 वर्ष पर गीतकार प्रेम धवन के शब्दों में 'छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी, नए दौर में लिखेंगे, मिल कर नई कहानी..' प्रासंगिक है!
कर के दिखाएंगे!
इस कॉलम पर अपनी राय देने के लिए यहां क्लिक करें।
Copyright © 2022-23 DB Corp ltd., All Rights Reserved
This website follows the DNPA Code of Ethics.