‘मुझे नहीं पता कि पापा दिखने में कैसे थे। मैंने उनकी गोद में कभी खेला हो, ये भी याद नहीं। सात साल की थी, जब वो आधी रात में हमें छोड़कर चले गए। सरकारी फाइल कहती है कि उनका एनकाउंटर हो गया, लेकिन हमें नहीं पता कि वाकई में उनकी मौत हो गई, या अभी भी जिंदा हैं।
गले में गोलियों के छर्रे का पट्टा और बंदूक के साथ जब मैं पापा की तस्वीर देखती हूं, तो पूछती हूं कि क्या वो डकैत थे? बागी थे? किसी के पास कोई जवाब नहीं।’
मध्यप्रदेश के मुरैना डिस्ट्रिक्ट कोर्ट की एडवोकेट और भ्रूण हत्या पर लंबे अरसे से काम कर रही सोशल एक्टिविस्ट आशा सिंह सिकरवार जब तस्वीर के सहारे अपने पापा को याद करती हैं, तो फफक पड़ती हैं।
पिता को याद करने के नाम पर अब उनके पास बस कुछ पुरानी तस्वीरें हैं। आशा चश्मा निकालकर आंखों से टपकते हुए आंसू को कई बार रोकने की कोशिश करती हैं, लेकिन आंसू टपकते ही चले जाते हैं।
थोड़ी देर बाद वो कहती हैं, ‘एक पीढ़ी का किया हुआ कई पीढ़ियों को भुगतना पड़ता है, वही हमारे साथ हुआ। मैं चंबल के पहले बागी खानदान की बेटी हूं। पूर्वजों ने जस्टिस के लिए खूनी जंग लड़ी, बंदूक उठाई, लेकिन मैंने कलम।’
आशा जब बागी हुए परदादा (दादा के पिता जी), दादा डोंगर-बटुरी सिंह सहाय से लेकर एडवोकेट बनने, ससुराल में घरेलू हिंसा का शिकार होने और फिर चंबल में भ्रूण हत्या को लेकर सिलसिलेवार तरीके से कहना शुरू करती हैं, तो आस पास के लोग एकटक होकर उन्हें सुनते चलते जाते हैं।
आशा सिंह कहती हैं, ‘परदादा को जीवाजी राव सिंधिया की हुकूमत ने जेल में बंद कर दिया था। कई सालों तक जेल में रहने के बाद जब वो रिहा होने वाले थे, तो जेलर ने खाने में पॉइजन देकर उन्हें मार डाला।
उनका बस इतना-सा कसूर था कि उन्होंने 19वीं सदी में पड़े अकाल के दौरान भी गरीबों से वसूले जा रहे लगान के खिलाफ आवाज उठाई थी, सिंधिया के साहूकारों को लगान देने से इनकार कर दिया था।
परदादा की मौत का बदला लेने के लिए मेरे दादा डोंगर सिंह और उनके भाई बटुरी सिंह ने हथियार उठा लिया और चंबल के पहले बागी बन गए। उनका कहना था कि अब वो चंबल पर राज करेंगे, 200 लोगों का गिरोह था, लेकिन उनकी लड़ाई सिंधिया से थी, गरीबों से नहीं।
100 साल बाद भी उनके किस्से चंबल के गांवों में कहे, सुने जाते हैं। किसी गांव की लड़की, औरत के साथ कोई गलत नहीं कर सकता था। यदि कहीं पर भी ऐसा होता, तो दादा उस व्यक्ति के कान और नाक, दोनों कटवा देते थे।
वो कहती हैं, किडनैपिंग की शुरुआत दादा ने ही की थी। वो सिंधिया के बड़े साहूकारों को कैद कर लेते थे और उनके सामानों को लूटकर गरीबों में बांट देते थे। इसका अंजाम ये हुआ कि मेरे गांव के ही कुछ साहूकारों से हमारी खानदानी खूनी दुश्मनी हो गई, लेकिन जीते जी दादा ने खुद को किसी के हाथ नहीं लगने दिया।
अंजाम ये हुआ कि आखिरी वक्त में दादा बटुरी सिंह ने खुद को गोली मार ली, जबकि डोंगर सिंह की बीमारी से मौत हो गई।’
मुरैना शहर में एडवोकेट आशा सिंह का घर है, जो गांव में बने किसी घर की तरह ही दिखता है। आंगन में बछड़े बंधे हुए हैं। खाट पर 85 साल की रामकली सिंह बैठी हुई हैं, जो आशा की मां हैं।
आशा कहती हैं, ‘दादा की मौत के बाद दादी ने पापा को पाला था। गांव में दुश्मन घात लगाए बैठे होते थे, इसलिए दादी ने पापा को ऐसे पाला जैसे कोई बिल्ली अपने बच्चे को पालती है। कभी इस घर में, तो कभी उस घर में।
जब पापा बड़े हुए, तो गांव वालों ने बागी डोंगर-बटुरी के खानदान से होने की वजह से उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया। ये आजादी के बाद की, यानी 1960 के आस-पास की बात है। गांव में रहना मुश्किल हो गया, तो पापा शहर आ गए।
एक रात पापा घर से चले गए, जो आज तक लौटकर नहीं आए। उनकी मौत के बाद मां ने हम भाई-बहनों की अकेले परवरिश की। बेटे को दूसरे शहरों में भेज दिया, ताकि वो जिंदा रह सके। दादा-पापा की तरह वो भी न मारा जाए। हम दो बहनें और मां घर पर रहने लगे। ’
आशा की आंखों में फिर से आंसू भरने लगते हैं, जिसे बगल में बैठी उनकी मां पोंछती हैं। मां रामकली बेटी के पीठ पर हाथ रखते हुए कहती हैं, ‘उनके (पति) जाने के बाद मैंने आंगन से बाहर कदम भी नहीं रखा। सारा शौक मर गया। आशा ने ही सारी चीजों को हैंडिल किया। मैंने इसे इतना निडर बनाया कि अब वो लोगों के हक के लिए लड़ रही है।’
आशा अपने कुछ पुराने एलबम और अवॉर्ड दिखाती हैं। कॉलेज के दिनों में भी उनका हेयर-स्टाइल वैसा ही था, जैसा आज है।
एकदम आदमी वाला पहनावा-ओढ़ावा…
आशा कहती हैं, ‘मैंने अपनी लाइफ में इतनी ट्रेजडी देखी कि सोसाइटी ने मुझे ऐसा बना दिया। जब तक मैं अपना हेयर ठीक करूंगी, तब तक किसी का मर्डर हो जाएगा।’
अपनी पढ़ाई-लिखाई की तरफ आशा लौटती हैं। बताती हैं, ‘बचपन से 12वीं तक की पढ़ाई कई स्कूलों में हुई। फीस न होने की वजह से किसी एक स्कूल में नहीं पढ़ पा रही थी। फिर स्कॉलरशिप और कई सारे स्पोर्ट्स कॉम्पिटिशन जीतकर मैंने पढ़ाई के पैसे जुटाए। उसके बाद मुरैना के कॉलेज में एडमिशन ले लिया।
जब मैं अपने पापा और दादा को किस्सों-कहानियों में सुनती थी, तो मुझे लगता था कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? किन वजहों से इन्हें बागी होना पड़ा। उस वक्त रियासतों और अंग्रेजों का शासन था, लेकिन मेरे वक्त तक देश लोकतंत्र में जीना सीख चुका था।
मैंने मुरैना से ही वकालत करने का फैसला किया, इसकी फीस भी बहुत कम थी। उस वक्त हमारे पास न तो इतने पैसे थे कि किसी बड़े शहर में जाकर पढ़ सकती थी और न ही शहर से बाहर जा सकती थी, क्योंकि घर में मां अकेली थी। बड़ी बहन और भाई दूसरे शहरों में रहने लगे।
वो कहती हैं, 'मैं वकालत करने लगी, तब अपने गांव नंदपुरा जाकर कानूनी लड़ाई के जरिए बंजर जमीन पर खेती करनी शुरू की क्योंकि पापा की मौत के बाद, गांव वाले खेती नहीं करने दे रहे थे। मुझे बागी के घर की बेटी बुलाते थे।’
इसी बीच मेरी शादी हो गई, लेकिन वो भी सक्सेस नहीं रही।
आशा जब अपनी शादी का जिक्र करती हैं, तो उनकी आंखों में कई सवाल होते हैं। आशा के पास शादी की यादों के नाम पर बस एक फोटो है। इसी बीच उनकी बेटी दिशा क्रिकेट खेलकर लौटती हैं।
आशा कहती हैं, ‘1998 की बात है। शादी के बाद मैं अपने ससुराल भोपाल आ गई। दूसरे दिन से ही सास और पति ने मेंटल टॉर्चर करना शुरू कर दिया। पति हमेशा मुझे शक की निगाह से देखते थे। मैं एडवोकेट थी, तो कोर्ट के काम से इधर-उधर जाना, कई लोगों से मिलना-जुलना होता था। उनका कहना था कि लोग मुझे क्यों जानते हैं? मुझसे बात क्यों करते हैं?
किसी लड़की का मेंटल टॉर्चर किस हद तक किया जा सकता है। कोई लड़की तंग आकर सुसाइड क्यों करती है, वो मैं जानती हूं। मैंने अपनी लाइफ को खत्म करने का फैसला भी कर लिया था, लेकिन एक साल की बेटी थी। कैसे मौत को गले लगा लेती। मां ने वापस बुला लिया, मैं मुरैना आ गई।'
आशा कहती हैं, 'बेटी को छोड़कर कोर्ट की प्रैक्टिस करने जाती थी। इसी दौरान साल 2001 की बात है। राष्ट्रीय जनगणना के आंकड़े जारी हुए थे, जिसमें मुरैना में लड़कियों का अनुपात लड़कों के मुकाबले बहुत कम था। मुझे लगा कि इसे रोकना होगा।
वकालत से इतर कई संस्थानों के साथ मिलकर जब रिसर्च करना शुरू किया, तो पता चला कि चंबल के लोग लड़की पैदा ही नहीं होने देना चाह रहे हैं। शहर में बड़े पैमाने पर अल्ट्रासाउंड सेंटर्स खुल रहे थे। जेंडर वैरिफिकेशन किया जा रहा था। परिवार वालों को जैसे ही पता चलता कि गर्भ में बेटी है, उसका अबॉर्शन करवा देते थे।
मैंने रेलवे ट्रैक पर नवजात को पड़े हुए देखा है। इतना ही नहीं, लड़की पैदा होने पर जमीन में गाड़ देते थे। जो चीजें मैंने देखी, वो रोंगटे खड़ी कर देने वाली थीं।
जब मैंने रिसर्च के दौरान गांव के लोगों के बीच रहना शुरू किया, तो पता चला कि यदि किसी के घर गलती से भी बेटी पैदा हो जाती थी, तो वो उसे चारपाई के नीचे दबाकर मार देते थे। नवजात के मुंह में तंबाकू रख देते थे, इससे उसकी मौत हो जाती थी।
मैंने इसके खिलाफ आवाज उठाने का फैसला किया। 'जागो सखी' नाम से संगठन की शुरुआत की। लोगों को अवेयर करना शुरू किया। महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में बताने लगी।
2005 आते-आते जितने भी जेंडर वैरिफिकेशन करने वाले अल्ट्रासाउंड सेंटर्स थे, सभी को हमने प्रशासन के साथ मिलकर बंद करवाया।
आशा अब वकालत के साथ-साथ काउंसलिंग का काम करती हैं। वो कहती हैं, 'मैं पुलिस थाने से लेकर कोर्ट तक महिलाओं को अपने अधिकार के लिए लड़ना सिखाती हूं। किसी महिला के साथ यदि एक बार गलत होता है, तो उसके साथ थाने और कोर्ट में सवालों की झड़ी लगाकर बार-बार गलत होता है।
इसीलिए मैंने कुछ समय बाद फुल टाइम वकालत छोड़कर ग्राउंड पर वर्क करना शुरू किया।'
आशा दो वाकये बताती हैं। वो कहती हैं-
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