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हाल ही में मां बनी करीना कपूर का एक वीडियो सोशल मीडिया पर खूब देखा गया। वीडियो में वो किसी इमारत में दाखिल हो रही है। हल्की नीले-सफेद पोशाक में सजी करीना ने हाथों में स्टाइलिश बैग लिया हुआ है और बाल भी खूबसूरती से बने हुए हैं। कुल मिलाकर पहली नजर में वीडियो में ऐसा कुछ भी नहीं, जिस पर खिंचाई हो सके। तब भी करीना को लताड़ा जा रहा है। क्यों! क्योंकि वो महीनेभर पहले ही मां बनी हैं। उनके फैन सवाल कर रहे हैं कि आखिर कैसे वो महीनेभर के शिशु को छोड़कर घर से बाहर निकल सकीं?
सवाल करने वालों में पुरुष ही नहीं, बल्कि औरतें भी हैं। वे सोशल मीडिया पर ही अपनी ममतामयी कहानियां सुना रही हैं कि मां बनने के बाद कैसे तीन महीनों के लिए वे नजरबंद हो गई थीं। या फलां मियाद तक उन्होंने बाल नहीं धोए थे। या फिर कानों में रूई ठूंसे, चोगानुमा कपड़ों में बच्चे के पोतड़े धोती फिरती थीं।
करीना अकेली नहीं, ट्रोलर्स के निशाने पर अनुष्का शर्मा भी हैं। जनवरी में बेटी के जन्म के बाद मार्च के आखिर में अनुष्का भी शूट के लिए बाहर देखी गईं। लोगों को गुस्सा तो था कि कैसे उनकी प्रेग्नेंसी में विराट मैच छोड़कर देश लौट आए थे। बस, मौका पाते ही बंदूक की गोली की तरह ट्रोलर्स की भड़ास अनुष्का पर निकल पड़ी। यूजर्स को चिंता है कि कैसे ये मांएं अपने छोटे बच्चों को घर पर छोड़ काम करने निकल पड़ती हैं। हर चिंता में एक धिक्कार साफ दिख रहा है, जो केवल और केवल मांओं के लिए आरक्षित है।
जब भी कोई औरत मां बनती है तो मानो सार्वजनिक संपत्ति बन जाती है। घरवालों के लेकर पास-पड़ोस और यहां तक कि अनजान लोग भी उसे सलाहों की पुड़िया थमाते चलते हैं। अरे! बच्चा रो रहा है। शायद उसे दूध पूरा नहीं पड़ रहा। बच्चे को ऐसे नहीं, वैसे पकड़ो। बच्चे की नींद सोओ। बच्चे की नींद जागो। क्या कहा! घूमने का दिल हो रहा है!! अब घूमने नहीं, बच्चे को बड़ा करने का वक्त है।
सपना! तुम अपने लिए कोई सपना कैसे बुन सकती हो। अब तुम्हें बच्चे के लिए सपने देखने हैं। मां बनते ही औरत मानो इंसान से कोई ढक्कनदार बर्तन बन जाती है, जिसमें सब बची-खुची सब्जी-दाल ठूंसने पर आमादा रहते हैं।
ढोल-ढमाकों के साथ मातृत्व का ऐसा महिमामंडन होता है कि डरी हुई औरत वाकई में सपनों को कोल्ड स्टोरेज में डाल देती है। वो इंतजार करने लगती है कि कब बच्चा बड़ा होगा तो वो रात में सात घंटों की बेखटका नींद ले सकेगी। वो इंतजार करती है कि कब वो स्कूल जाएगा तो वो आराम से घंटाभर नहा सकेगी या किसी अपने से फोन पर बात कर सकेगी। ये तमाम इंतजार च्युइंगम की तरह खिंचते ही चले जाते हैं। यहां तक कि औरत के जोड़ों में दर्द पसर जाता है और खिलंदड़ी के उसके सपने फफूंद खा जाते हैं।
लगभग 35 साल पहले कनाडा की लेखिका मार्गरेट अटवुड ने एक किताब लिखी थी- द हैंडमेड्स टेल (The Handmaid’s Tale)। इसके हर पन्ने पर लेखिका पढ़ने वालियों को चेताती है कि कैसे मातृत्व उनका 'स्व' छीन लेता है। और इसमें दोष गर्भ से निकले शिशु का नहीं, बल्कि समाज का है। किताब में औरतों की अलग-अलग श्रेणियां हैं। एक श्रेणी चमकदार लेकिन बंजर औरतों की है, जिसे मर्द तमगे की तरह अपने सीने पर सजाते हैं। दूसरा दर्जा दासियों का है, जिसका काम मर्द के बीज अपने में बोकर शानदार फसल उगाना है।
किताब में एक पुरुष चरित्र बिना लाग-लपेट एलान करता है कि औरतों और खासकर मांओं को बेआवाज सारी पराधीनता ओढ़ लेनी चाहिए, क्योंकि ये काम खुद ईश्वर ने उन्हें सौंपा है। एक और जगह बताया जाता है कि औरत केवल और केवल तभी पवित्र रहती है, जब वो गर्भ धारण करे। मां सामान्य इंसान बने रहने को चाहे जितना कसमसाए, उसे बांध-बूंधकर शहादत का चोला ओढ़ा दिया जाता है। अपने साथ का ही एक वाकया याद आता है। मां बनने के लगभग डेढ़ साल बाद मैंने घर से बाहर पैर धरे। अल्ट्रा-न्यूक्लियर परिवार, मदद के लिए दूर-दूर तक कोई नहीं। तिस पर मेरा मदद न मांगने का गंगाजली प्रण। खैर! नौकरी पर गई तो नए दफ्तर में लगभग सभी लोग नए उम्र के थे। आए दिन पूछते- 'छोटे बच्चे को छोड़कर आपका कलेजा नहीं कांपता'!
ये भोला सवाल था। नजरअंदाज कर जाती, लेकिन एक रोज एक पकी उम्र के पुरुष ने अपनी मां के घरेलूपन के बहाने तंज कसा- 'मेरी मां ने उस जमाने में ग्रेजुएशन किया था लेकिन मजाल कि कभी घर से बाहर पैर धरा हो। आपकी तरह छोड़ आती तो हम तो शायद बड़े ही नहीं हो पाते'। दिल में जैसे किसी ने घूंसा मार दिया हो। 'आपकी तरह' शब्द भीतर जो धंसा, सो आज तक नहीं निकल सका। मैं बता नहीं सकी कि बिटिया के आने के बाद से शायद ही किसी रात पांच घंटे नींद भी ली हो। कि अपने बुखार इसलिए दफ्तर जाती कि उसकी तबीयत के समय छुट्टियां बाकी रहें। बताने का कोई फायदा भी नहीं था।
सामाजिक तौर पर ये कितना आसान है कि पुरुष एक ही वक्त पर पिता भी होता है और दफ्तर में तरक्की के नए पायदान छू पाता है। वहीं औरत एक समय पर या तो मां होती है या फिर करियर-ऑब्सेस्ड। कुछ ही उदाहरण होंगे, जहां मां बच्चे की सार-संभाल के साथ अपने सपनों को भी खाद दे पाती होगी।
हम जैसी आम महिलाओं या फिर करीना-अनुष्का को छोड़ दें तो कानून भी इस पूर्वाग्रह से कहां बचा हुआ है! आसमान छूते ऊंचे किलों में बसे पुरुष एक के बाद एक कानून बना रहे हैं कि औरतों को कितने बच्चे पैदा करने चाहिए या फिर कितने हफ्तों के भीतर गर्भपात किया जाना चाहिए। औरत का इसमें कोई रोल नहीं। किलेबंद पुरुषों ने बस तय कर दिया कि मातृत्व एक अनुष्ठान है, जिसके बगैर स्त्री अधूरी है। इसमें बच्चे को नौ महीनों तक कोख में रखना-भर शामिल नहीं, बल्कि उसे बड़ा और इतना बड़ा करना भी शामिल है, जितने में वो किसी और स्त्री पर रौब गांठ सके या यूं कहें कि उसे सही रास्ता दिखा सके।
जाते-जाते नई मांओं की ‘क्रूरता’ की एक और मिसाल दिख रही है। करीना कपूर केवल अपने महीनेभर के बच्चे को छोड़कर घूमने-फिरने ही नहीं निकल रहीं, बल्कि अपनी बड़ी औलाद तैमूर को भी नजरअंदाज कर रही हैं। एक वीडियो में दौड़ते हुए तैमूर का सिर कांच से टकराते दिखने पर ट्रोलर्स ने छाती पीटकर रोना शुरू कर दिया। वे कह रहे हैं कि फोटो खिंचवाने में व्यस्त मां के चलते बच्चों को यही हाल होता है। यहां गौर करें कि कहीं भी पिता का जिक्र नहीं हो रहा। जैसे करीना या अनुष्का की संतानें सूर्य की रोशनी से जन्मी हों, जिसका पूरा और अकेला जिम्मा औरत के हिस्से हो।
जितनी रिसर्च करो, तस्वीर उतनी साफ होती चली जाती है। बच्चों का जन्म और उन्हें पालना-पोसना मां की जिम्मेदारी है लेकिन केवल तभी तक, जब तक वो ताकतवर हो अपनी पहचान नहीं बना लेता। खासकर नर संतान के बारे में समाज खूब चौकन्ना होकर काम करता है। वो नजरें गाड़े रहता है कि जैसे ही संतान बड़ी हो और आकार लेने लगे, तुरंत उस पर अपनी मुहरबंदी कर दी जाए।
हालांकि स्कैंडिनेवियाई मुल्क इस स्याह तस्वीर को धो-पोंछ रहे हैं। वहां नई मांओं को सप्ताह में 20 घंटे उसके अपने लिए दिए जाते हैं। इस दौरान कॉलोनी के लोग या फिर जरूरत पड़े तो खुद स्थानीय प्रशासन शिशु की देखभाल का जिम्मा लेता है। ये सब इसलिए ताकि मां एक इंसान भी बनी रह सके। कुंठा, थकान और इंतजार से भरी मांओं के लिए सारी दुनिया में ऐसा दिन कब आएगा?
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