मनोज बाजपेयी और अनुराग कश्यप के बीच शुरुआत में रिश्ते ठीक नहीं थे। दोनों एक दूसरे से बातचीत भी नहीं करते थे। लेकिन अनुराग कश्यप के एक कॉल से दोनों के बीच फिर से दोस्ती हो गई। अनुराग ने मनोज को कॉल करके गैंग्स ऑफ वासेपुर में काम करने का ऑफर दिया।
मनोज को फिल्म की स्क्रिप्ट इतनी पसंद आई कि उन्होंने अनुराग के साथ सारे गिले-शिकवे भूलकर फिल्म के लिए हां कर दी। बाद में इस फिल्म ने मनोज के करियर को एक नई पहचान दे दी।
'रात में साढ़े दस बजे अनुराग ने किया कॉल'
मनोज बाजपेयी ने ह्यूमन्स ऑफ बॉम्बे के साथ हाल ही एक इंटरव्यू में प्रोफेशनल लाइफ से जुड़ी कई बातों पर चर्चा की। उन्हें गैंग्स ऑफ वासेपुर जैसी फिल्म कैसे मिली, इस बारे में भी उन्होंने खुलकर बात की।
उन्होंने कहा, 'एक रात साढ़े दस बजे के करीब मेरे पास अनुराग कश्यप का फोन आया। मैं उस वक्त तक थक गया था और आराम करने जा रहा था। मैंने अनुराग से पिछले कई सालों से बात नहीं की थी। हमारे बीच कुछ ऐसे मुद्दे थे, जिन्हें सुलझाया नहीं गया था, लेकिन उनकी एक कॉल से इन सारे मुद्दों को खत्म कर दिया।'
'स्क्रिप्ट पढ़ते ही अनुराग को रेड वाइन मंगाने को कहा'
मनोज ने आगे कहा, 'अनुराग ने मुझसे कहा कि उनके पास मुझे दिखाने के लिए कुछ है, क्या मैं उसे पढ़ना चाहूंगा। उन्होंने मुझे अपनी कार भेजी। मैं उनके ऑफिस गया, उन्होंने मुझे स्क्रिप्ट पढ़कर सुनाई। स्क्रिप्ट पढ़ते ही मैंने उनसे कहा कि एक रेड वाइन की बोतल मंगवाएं। उन्होंने दो बोतल मंगवाई। इस तरह सरदार खान के कैरेक्टर का जन्म हुआ।'
गैंग्स ऑफ वासेपुर ने मनोज के करियर को नई दिशा दी
ये कहना गलत नहीं होगा कि गैंग्स ऑफ वासेपुर ने मनोज बाजपेयी के करियर को एक नई दिशा दे दी। उनके निभाया सरदार खान का किरदार आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है। फिल्म में उनके डायलॉग्स की आज भी चर्चा होती है। राम गोपाल वर्मा की सत्या के बाद ये उनकी दूसरी ऐसी फिल्म थी जिसे आने वाले सालों तक लोग याद रखेंगे।
खाने तक को पैसे नहीं होते थे, 5 KM पैदल चलता था- मनोज
मनोज बाजपेयी ने इसी इंटरव्यू में अपने स्ट्रगल के दिनों को भी याद किया। उन्होंने कहा,'मैं बॉम्बे में किसी को नहीं जानता था। मेरे थिएटर के बैकग्राउंड से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। मैं डायरेक्टर्स से मिलने फिल्म के सेट पर काफी दूर चला जाता था। लंच ब्रेक में मेरे पास खाने तक को पैसे नहीं होते थे। ट्रैवल करने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं रहते थे। 5 किलोमीटर तक तो पैदल ही चलता रहता था।'
सत्या के लिए मिला था नेशनल अवॉर्ड
1994 में मनोज बाजपेयी को पहला ब्रेक महेश भट्ट ने अपने टीवी सीरियल स्वाभिमान के जरिए दिया। इसमें काम करने के लिए 1500 रुपए प्रति एपिसोड मिलते थे। फिल्मों में उनकी एंट्री शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ से हुई।
1998 में आई राम गोपाल वर्मा की ‘सत्या’ को मनोज अपना असली डेब्यू मानते हैं और इसी फिल्म ने उनकी जिंदगी बदल दी। ‘भीखू म्हात्रे’ के रोल से वो पूरे देश में पहचाने गए। इस रोल के लिए उन्हें बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का नेशनल अवॉर्ड भी मिला।
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‘ऐसे लुक्खे (मनोज बाजपेयी) से मैं क्या बात करूंगा। उसकी इतनी औकात नहीं है कि मैं उससे बात करूं। वो मेरा कोई रिश्तेदार है जो उससे पूछूं कि भाई आप क्या कर रहे हो। उसने जो किया, ठीक किया। और इसके बाद अगर कोर्ट में ये साबित हुआ कि उन्होंने झूठा केस किया तो उसे भी जेल जाना पड़ेगा। जाहिर सी बात है भुगतना पड़ेगा।’
यह बात फिल्म क्रिटिक कमाल राशिद खान KRK ने एक्टर मनोज बाजपेयी के बारे में दैनिक भास्कर से चर्चा में कही। पूरी खबर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
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