- सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में क्यूरेटिव पिटीशन लगाई गई है
- दिल्ली हाईकोर्ट ने 2 जुलाई, 2009 को वयस्कों के बीच समलैंगिकता को वैध करार दिया था
नई दिल्ली. समलैंगकता को अपराध माना जाए या नहीं इस पर सुप्रीम कोर्ट में बुधवार को भी बहस हुई। केंद्र सरकार ने कहा कि वह इस मामले को अदालत के विवेक पर छोड़ती है। वहीं, मामले की सुनवाई कर रही संविधान पीठ के जज जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, 'हम नहीं चाहते कि दो समलैंगिक मरीन ड्राइव (मुंबई में) पर टहल रहे हों और पुलिस उन्हें परेशान करे और उन पर धारा 377 लगा दे।
सरकार की ओर से एडीशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट से समलैंगिकों की शादी, साथ रहने (लिव इन) या उत्तराधिकार के मुद्दों पर गौर नहीं करने की गुजारिश की। इस पर संविधान पीठ ने कहा कि वह सिर्फ आईपीसी की धारा 377 की संवैधानिक वैधता पर विचार करेगी। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुआई वाली इस बेंच में जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं। आईपीसी की धारा 377 में दो समलैंगिक वयस्कों के बीच सहमति से शारीरिक संबंधों को अपराध माना गया है और सजा का प्रावधान है। दायर याचिकाओं में इसे चुनौती दी गई है।
समलैंगिक से करियर पर असर नहीं पड़ता : बुधवार को केस की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं की वकील मेनका गुरुस्वामी ने कहा, "समलैंगिकता से किसी शख्स के भविष्य और तरक्की पर असर नहीं पड़ता। ऐसे लोगों ने आईआईटी और प्रशासनिक सेवाओं जैसी कई बड़ी परीक्षाएं पास की हैं। लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर लोगों को कोर्ट, संविधान और देश की ओर से सुरक्षा मिलनी चाहिए। धारा 377 एलजीबीटी (समलैंगिक) समाज के बराबरी के अधिकार को खत्म करती है।"
हाईकोर्ट ने समलैंगिकता के पक्ष में दिया था फैसला: दिल्ली हाईकोर्ट ने 2 जुलाई, 2009 को वयस्कों के बीच समलैंगिकता को वैध करार देते हुए उसे अपराध की श्रेणी से बाहर रखने की बात कही थी। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिक संबंधों को गैरकानूनी करार दिया। फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिकाएं दायर की गईं। इसे भी खारिज कर दिया गया। इसके बाद क्यूरेटिव पिटीशन दायर की गईं। इनमें आईआईटी के 20 पूर्व और मौजूदा छात्रों ने दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला बहाल करने की मांग की है।
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