अभिषेक रंजन रिसर्च फेलो, आर्कटिक यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्वे
करीब 4 साल पहले जब मैं नॉर्वे के इस ट्रोमसो शहर में आया था, तो लग रहा था कि जिंदगी कितनी मुश्किल होगी यहां। 50-50 दिन सूरज नहीं निकलता। पारा -25 डिग्री तक चला जाता है। बर्फ पर फिसलने से चोट लगना आम बात है।
अंधेरे में एक्सीडेंट बहुत होते हैं। चीजें बहुत महंगी हैं। ऐसी जगह कैसे रह पाऊंगा? मगर ये सिक्के का एक पहलू है। कई बार निगेटिविटी में पॉजिटिविटी भी होती है। सिर्फ नजरिया बदलने की जरूरत है, नजारा खुद बदल जाता है।
नॉर्वे में LED लाइट्स से पूरी की जाती है सूरज की कमी
यह रिपोर्ट पढ़ने के बाद गारंटी है कि आपको भी ये तो जरूर लगने लगेगा कि काश, मैं भी यहां जा पाता या फिर यहीं बस भी जाता। जैसा कि अब मुझे महसूस होता है।करीब 70 हजार की आबादी वाले इस शहर का दूसरा पहलू ये है कि यह चारों तरफ ऊंचे पर्वत से घिरा है। बीच में समंदर है। आसमान में ऑरोरा (कुदरती रंगीन लाइट्स) और दोनों किनारों पर बसी आबादी का नजारा देखते ही बनता है।
जिन 50 दिनों में यहां सूरज नहीं निकलता, उससे पहले लोग विटामिन डी, विटामिन सी और ओमेगा बी 12 के सप्लीमेंट्स जुटा लेते हैं, ताकि शरीर में जरूरी चीजों की कमी न हो। सभी लोग रोज घर में कुछ वक्त LED लाइट्स को देखते हैं, ताकि शरीर में सूरज की रोशनी की कमी पूरी कर सकें। पेड़-पौधों के सामने भी यही लाइट्स लगाते हैं, ताकि वे जिंदा रह सकें। बर्फ पर न फिसलें, उसके लिए स्पाइक्स लगाते हैं।
लोग जिंदादिली से जीते हैं
नॉर्वे में जब लोग बाहर निकलते हैं तो रेट्रो रिफलेक्टर पहनते हैं, जो बांह में लगता है। लाइट पड़ते ही चमकने लगता है, ताकि एक्सीडेंट न हों। सर्दी हो, गर्मी हो, बर्फबारी हो या बारिश...यहां स्कूल-कॉलेज और ऑफिस का वक्त नहीं बदलता। इनकी टाइमिंग सुबह 8 बजे से शाम करीब 4 बजे ही रहती है। लोग पूरी जिंदादिली से जीते हैं। पैसों के बारे में तो सोचते भी नहीं। बचत नहीं करते, क्योंकि इलाज-पढ़ाई का खर्च सरकार उठाती है। ड्राइवर और क्लीनर जैसा काम करने वाले भी हर महीने ढाई से तीन लाख रुपए कमा लेते हैं।
एक सिनेमाहॉल है, जहां अलग-अलग भाषाओं की फिल्में लगती हैं, जिनमें अंग्रेजी में सब टाइटल्स होते हैं। हाल में लाल सिंह चड्ढा व आरआरआर भी लगी थी।यहां क्राइम न के बराबर है। अगर आपका पर्स बस में गिर जाए, तो संभवतः वापस मिल जाएगा। कैश का कोई झंझट ही नहीं है, सब कुछ डिजिटल है। हिंसा तो दूर की बात, लोग चिल्लाते भी नहीं। ज्यादातर लोगों के पास ऑडी, मर्सिडीज व टेस्ला जैसी लग्जरी कारें हैं।
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