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कहानी - जब स्वामी विवेकानंद जर्मनी में थे, तब वे एक दिन संस्कृत के विद्वान प्रोफेसर पॉल डायसन के घर पर रुके हुए थे। दोनों बातचीत कर रहे थे। उस समय प्रो. डायसन को किसी काम से बाहर जाना पड़ा।
स्वामीजी खाली बैठे थे तो उन्हें वहीं रखी हुई किताब दिखी। उन्होंने किताब को उठाया और पढ़ने लगे। वह कविताओं की किताब थी। पढ़ते-पढ़ते विवेकानंदजी इतने डूब गए कि उन्हें पता ही नहीं चला कि प्रो. डायसन वापस आ गए हैं।
प्रो. डायसन को ये बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने सोचा कि विवेकानंद जानबूझकर मुझे नजरअंदाज कर रहे हैं। थोड़ी देर बाद जब स्वामीजी ने अपना सिर उठाया तो उन्होंने प्रोफेसर को देखा तो माफी मांगी और कहा, ‘मैं ये किताब पढ़ने में इतना खो गया कि मैं आपकी ओर ध्यान ही नहीं दे सका।’
डायसन अभी भी नाराज ही थे। वे बोले, ‘मुझे ऐसा लगता है कि आपने जानबूझकर मुझे नजरअंदाज किया है। क्या कोई किताब पढ़ने में भी इतना खो सकता है कि उसे कुछ ध्यान ही न रहे।’
यह बात सुनकर विवेकानंदजी ने किताब की कुछ कविताएं वैसी की वैसी पढ़कर सुना दीं, जैसी कि किताब में लिखी थीं। किताब में 200 कविताएं थीं, लेकिन डायसन को अभी विश्वास नहीं हुआ, उन्होंने कहा, ‘लगता है आप पहले भी इस किताब को पढ़ चुके हैं।’
विवेकानंदजी ने कहा, ‘मैंने यह किताब पहली बार ही पढ़ी है। आप जहां से चाहे, वहां से कोई भी कविता पूछ सकते हैं।’
थोड़ी देर बाद प्रो. डायसन मान गए कि स्वामीजी की याददाश्त बहुत तेज है। उन्होंने पूछा, ‘यह बताइए आपको इतनी कविताएं याद कैसे हो गईं?’
विवेकानंद बोले, ‘एकाग्रता की वजह से मुझे ये कविताएं याद हो गईं। मैं जब भी कोई काम करता हूं, खासतौर पर पढ़ने और लिखने का तो पूरी एकाग्रता के साथ करता हूं। एकाग्रता जितनी गहरी होगी, स्मृति उतनी तेज हो जाएगी। इसीलिए मैंने पूरी एकाग्रता के साथ पढ़ी हुई इस किताब की कविताएं आपको सुना दीं। ’
सीख- विवेकानंदजी से प्रो. पॉल डायसन ने सीख ली कि जो भी काम करो, उसे पूरी तरह डूबकर करना चाहिए। हमें भी हर काम पूरे कन्संट्रेशन के साथ करना चाहिए। जब हम एकाग्र मन से कोई काम करते हैं तो उसका परिणाम भी अद्भुत मिलता है। पूरे ध्यान के साथ पढ़ेंगे तो पढ़ा हुआ लंबे समय तक याद रहता है।
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