कहानी - श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव और नारद मुनि के बीच सत्संग चल रहा था। वसुदेव जी ने कुछ प्रश्न पूछे तो जवाब में नारद जी एक कथा सुनाई।
ऋषभ देव के नौ पुत्र हुए, जिन्हें नौ योगिश्वरों के नाम से जाना जाता है। ऋषभ जी राजा प्रियव्रत के पुत्र थे। ऋषभ देव के वैसे तो सौ पुत्र थे, उनमें सबसे बड़े पुत्र का नाम का भरत। हमारे देश का नाम भारतवर्ष उन्हीं के नाम पर पड़ा है। इससे पहले भारत को अजनाभवर्ष के नाम से जाना जाता था।
ऋषभ देव के पुत्र भरत के बाद 99 पुत्रों में से 9 पुत्र 9 द्वीपों में स्थापित हो गए और 81 पुत्र कर्मकांड के रचियता ब्राह्मण हो गए। शेष 9 पुत्र संन्यासी हो गए और पूरे संसार को ज्ञान बांटने लगे। इनके नाम थे कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, पिपलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और कर्भाजन।
इन 9 संन्यासी पुत्रों का एक ही काम था, जगह-जगह घुमकर लोगों के जीवन की समस्याओं के समाधान खोजना। ये सभी थे तो राजा के बेटे और जब इनसे कोई पूछता कि आप सभी राजा के बेटे हैं, आप चाहें तो अपने दूसरों भाइयों की तरह राज-काज कर सकते हैं। आप क्यों जंगल-जंगल भटककर प्रवचन करते हैं, लोगों को समझाते हैं, स्वयं तो तप करते ही हैं।'
सभी 9 पुत्र इन सवालों के जवाब में कहते थे, 'दूसरों के दु:ख राजा भी मिटाता है और हम भी मिटाते हैं। राजा भौतिक सुख देता है, भौतिक दु:ख मिटाता है। हम योगीश्वर हैं, लोगों को आत्मिक सुख देते हैं और उनके मानसिक दुख मिटाते हैं। ये भी एक बहुत बड़ा काम है।'
सीख - कर्तव्य निभाने के लिए, समाज सेवा करने के लिए हमारे पास सत्ता हो, धन हो, ये जरूरी नहीं है। सेवा किसी भी स्तर पर की जा सकती है। हर एक व्यक्ति सेवा कार्य कर सकता है।
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