कहानी
आंध्र प्रदेश में गोदावरी नदी के किनारे एक छोटे से गांव में अरुण मुनि और जयंती देवी नाम के पति-पत्नी रहते थे। इनके बच्चे का नाम था नियमानंद।
एक दिन इनके घर एक संत भिक्षा लेने आए। बच्चे की माता ने दान देना चाहा तो संत ने कहा, 'मुझे तो अन्न की भिक्षा चाहिए, मुझे बहुत भूख लगी है। कुछ फलाहार की व्यवस्था हो जाए तो बहुत अच्छा रहेगा। ध्यान रखना कि हम सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करते हैं।'
जयंती देवी के घर में खाने की कुछ व्यवस्था नहीं थी तो वे दुखी हो गईं। नियमानंद ने माता को दुखी देखा तो वह फलाहार लेने के लिए घर से बाहर आया। उस बच्चे ने सोचा कि मेरे आने से पहले ही सूर्यास्त हो जाएगा। उस समय बच्चे के पास एक दिव्य चक्र था। बच्चे ने उस चक्र को नीम के एक पेड़ पर इस तरह रख दिया कि सूर्य ढक गया। इसके बाद सूर्यास्त का अंदाजा नहीं लग पा रहा था। बच्चा जल्दी ही फलाहार लेकर अपने घर लौट आया और संत को फलाहार करा दिया।
संत ने फलाहार कर लिया तो उस बच्चे ने नीम के पेड़ से वह चक्र हटा लिया। ये देखकर संत बहुत प्रसन्न हुए। ऐसा कहा जाता है कि वे संत के रूप में ब्रह्मा जी ही थे। संत ने बालक से कहा, 'हमने तुम्हारी परीक्षा ले ली है और तुमने नीम यानी निम्ब के पेड़ पर ये प्रयोग किया है और सूर्य को अर्क भी कहते हैं तो आज से तुम्हारा नाम निम्बार्क होगा।'
यही बच्चा बाद में निम्बार्काचार्य हुए। आचार्य ही कहा करते थे कि एक तो मेरी मां का आशीर्वाद मेरे साथ था और संत मेरे सामने उपस्थित थे तो मैं ये चमत्कार कर पाया।
सीख
ये किस्सा प्रतीकात्मक माना गया है, लेकिन इस घटना से हमें दो संदेश मिल रहे हैं। पहला, बड़ों का आशीर्वाद लेते रहना चाहिए। दूसरा, स्वयं की संकल्प शक्ति को मजबूत बनाए रखना चाहिए। ये दो बातें ध्यान रखेंगे तो मुश्किल से मुश्किल काम भी पूरे हो सकते हैं।
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