कहानी
संत सूरदास के पिता रामदास गायक थे और वे सारस्वत ब्राह्मण थे। उनका परिवार बहुत ही निर्धन था। एक वक्त का खाना भी समय पर नहीं मिलता था।
रामदास जी भजन गाया करते थे और बालक सूरदास भजन सुना करता था। धीरे-धीरे सूरदास के पंक्तियां बोलने लगे थे। उस समय लोग ये चर्चा करते थे कि ये बालक जन्म से अंधा है या इसे कम दिखता है या भगवान को याद करके आंखें बंद कर लेता है। इन प्रश्नों का सही उत्तर किसी को नहीं मिला था।
सूरदास जी के संबंध विद्वानों में हमेशा मतभेद रहता था कि सूरदास को दिखता था या नहीं दिखता था, क्योंकि वे जो रचनाएं करते थे, उनमें जो गहराई होती थी, उन्हें देखकर लोग उन्हें अंधा मानने को तैयार नहीं थे।
समय के साथ सूरदास की धार्मिकता इतनी बढ़ गई कि पिता को चिंता होने लगी थी कि इस उदासीन बालक का क्या होगा। एक दिन सूरदास जी के जीवन में वल्लभाचार्य जी आए। गांव के बाहर नदी के किनारे पर इनकी भेंट हुई थी।
वल्लभाचार्य जी ने सोचा कि ये बालक ऐसे ही बोलता रहा, सुनाता रहा तो भटक जाएगा। इसके ज्ञान को कहीं एकत्र करना चाहिए। इसके बाद उन्होंने सूरदास जी को पुष्टिमार्ग की दीक्षा दे दी।
वल्लभाचार्य जी ने सूरदास जी को कृष्ण लीलाओं का दिव्य दर्शन कराया और श्रीनाथ जी के मंदिर में कृष्ण लीला गान करने की जिम्मेदारी सौंप दी। इसके बाद सूरदास जी जीवन भर कृष्ण लीलाओं का गान करते रहे।
इस किस्से में सबसे बड़ी बात ये है कि क्या सूरदास सचमुच जन्मांध थे। इस प्रश्न का उत्तर ये है कि अगर किसी व्यक्ति ने भगवान को अपने भीतर देख लिया है तो उसकी आंतरिक दृष्टि जाग जाती है। बाहर की दुनिया बाहर की आंख से देखी जाती है। दुनिया बनाने वाले भीतरी नेत्रों से दिखाई देता है। दूसरी बात है सूरदास के जीवन में गुरु का आना।
सीख
हमें दो काम जरूर करना चाहिए। पहला, हमें अपने जीवन में कुछ समय खुद के लिए निकालें और ध्यान करें। दूसरा काम है किसी योग्य व्यक्ति को गुरु बनाना चाहिए। ये दो काम करेंगे तो सकारात्मकता बनी रहेगी। गुरु के मार्गदर्शन से बड़ी-बड़ी समस्याएं खत्म हो सकती हैं।
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