मंगलवार 10 मई को वैशाख शुक्ल नवमी तिथि है। त्रेता युग में इसी तिथि पर राजा जनक यज्ञ भूमि के लिए हल चला रहे थे, उस समय खेत में से उन्हें एक कन्या मिली थी, जिसका नाम सीता रखा गया। उस दिन भी मंगलवार ही था। हल की नोंक को सीत कहते हैं। हल की नोंक से देवी सीता प्राप्त हुई थीं, इसलिए राजा जनक ने कन्या का नाम सीता रखा था।
राजा जनक ने सीता को पुत्री माना था, इस कारण देवी का एक नाम जानकी भी प्रसिद्ध हुआ। जनक का एक नाम विदेह था, इस वजह से सीता को वैदेही भी कहते हैं। एक दिन बचपन में सीता ने खेलते-खेलते शिव जी का धनुष उठा लिया था। राजा जनक ने उस समय पहली बार समझ आया कि सीता दैवीय कन्या हैं। उस समय शिव धनुष को रावण, बाणासुर आदि कई वीर हिला तक भी नहीं सकते थे। इसलिए राजा जनक ने सीता का विवाह ऐसे व्यक्ति से करने का निश्चय किया था जो उस धनुष को उठा सके और तोड़ सके।
सीता माता-पिता और सास-ससुर का करती हैं एक समान सम्मान
सीता जी अपने माता-पिता की तरह ही अपने सास-ससुर का भी एक जैसा ही सम्मान करती थीं। वनवास की शुरुआत में भरत के साथ कौशल्या, कैकयी और सुमित्रा के साथ ही अयोध्या के लोग भी श्रीराम के पास वन में पहुंचे थे। इनके साथ देवी सीता के माता-पिता भी आए थे। उस समय सीता ने माता-पिता से मिलने से पहले अपनी तीनों सासों से आज्ञा ली थी और इसके बाद वह अपने माता-पिता से मिलने पहुंची थीं।
जीवन साथी के लिए छोड़ दिए थे शाही सुख
श्रीराम की सेवा में कई लोग रहते थे, लेकिन विवाह के बाद देवी सीता ने श्रीराम की सेवा की जिम्मेदारियां खुद ले ली थीं। सीता श्रीराम की सेवा में लगी रहती थीं। राम वनवास जाने को तैयार हुए तो जानकी जी भी पति के साथ वन जाने के लिए तैयार हो गईं। पति के साथ रहने के लिए सीता ने शाही सुख छोड़ दिए थे।
हनुमान जी को दिया था अजर-अमर होने का वरदान
अशोक वाटिका में हनुमान जी और सीता जी की पहली बार मुलाकात हुई थी। उस समय हनुमान जी ने सीता जी को श्रीराम नाम अंकित मुद्रिका यानी अंगूठी दी थी। हनुमान जी ने सीता की चिंताएं दूर कर दी थीं, इस कारण देवी ने उन्हें अजर-अमर होने का वर दिया था।
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