वट सावित्री व्रत और शनि देव की पूजन विधि:ज्येष्ठ अमावस्या आज; पूजा-पाठ के साथ करना चाहिए दान-पुण्य, पितरों के लिए धूप-ध्यान भी करें

15 दिन पहले
  • कॉपी लिंक

आज (19 मई) को ज्येष्ठ अमावस्या, शनि जयंती और वट सावित्री व्रत है। इस दिन किए गए पूजा-पाठ से घर-परिवार में सुख-समृद्धि बनी रहती है, वैवाहिक जीवन में आपसी प्रेम बढ़ता है। ज्येष्ठ अमाव्या पर शनि पूजा करें, वट सावित्री रखें और पितरों के लिए धूप-ध्यान करें।

उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं. मनीष शर्मा के मुताबिक, ज्येष्ठ अमावस्या पर शनि देव का जन्म हुआ था। शनि सूर्य और छाया के पुत्र हैं। यमराज और यमुना के भाई हैं। पुराने समय में इसी तिथि पर सावित्री ने यमराज को तप से प्रसन्न किया था और अपने पति सत्यवान के प्राणों की रक्षा की थी। जानिए शनि और वट सावित्री व्रत की पूजा विधि...

शनि देव से जुड़ी खास बातें

पं. शर्मा के मुताबिक, सूर्य देव का विवाह प्रजापति दक्ष की पुत्री संज्ञा से हुआ था। इनकी तीन संतानें हुईं थी मनु, यम और यमुना। संज्ञा सूर्य का तेज सहन नहीं कर पा रही थीं। संज्ञा ने अपनी छाया को सूर्य की सेवा में लगा दिया और सूर्य के बताए बिना वहां से चली गईं। कुछ समय बाद सूर्य और छाया के पुत्र के रूप मे शनि देव का जन्म हुआ। शनि देव श्याम वर्ण, लंबे शरीर, बड़ी आंखों वाले और लंबे केश वाले हैं।

सावित्री, यमराज और सत्यवान से जुड़ा है वट सावित्री व्रत

महिलाएं वट सावित्री व्रत अपने पति के लंबे जीवन, अच्छे स्वास्थ्य और सौभाग्य की कामना से करती हैं। मान्यता है कि जो महिलाएं ये व्रत करती हैं, उनके पति की सारी समस्याएं खत्म हो जाती हैं और वैवाहिक जीवन सुखी हो जाता है। महिलाएं वट यानी बरगद के नीचे पूजा करती हैं, सावित्री और सत्यवान की कथा सुनती हैं। इस कथा के अनुसार सावित्री ने मृत्यु के देवता यमराज को प्रसन्न करके अपने पति सत्यवान के प्राण वापस ले आई थीं।

ज्येष्ठ अमावस्या पर करें पितरों के लिए धूप-ध्यान

ज्येष्ठ अमावस्या पर गंगा, यमुना, शिप्रा, नर्मदा जैसी पवित्र नदियों में स्नान करने की परंपरा है। स्नान के बाद नदी किनारे पर ही जरूरतमंद लोगों को जूते-चप्पल, कपड़े, अनाज और धन का दान करना चाहिए। अगर नदी स्नान नहीं कर पा रहे हैं तो घर पर तीर्थों का और नदियों का ध्यान करते हुए स्नान करना चाहिए। इस दिन पितरों के लिए धूप-ध्यान, श्राद्ध कर्म करना चाहिए। दोपहर में गाय के गोबर से बने कंडे जलाएं और कंडे के अंगारों पर गुड़-घी डालें, हथेली में जल लेकर अंगूठे की ओर से पितरों को अर्पित करें। पितरों का ध्यान करें।