कहानी - माता काली के मंदिर में रामकृष्ण परमहंस बैठे हुए थे। उस समय एक साधु मंदिर में आया, उस साधु ने रामकृष्ण परमहंस को नहीं देखा, लेकिन परमहंस जी की नजरें उस साधु पर ही थीं।
वह साधु भूखा था, उसने इधर-उधर देखा, लेकिन उसे कहीं भी अन्न दिखाई नहीं दिया। उसी समय मंदिर के बाहर एक कुत्ता रोटी खा रहा था। वह साधु उस कुत्ते के पास पहुंचा और कुत्ते को सीने से लगाकर कहा, 'अरे भय्या अकेले-अकेले रोटी खा रहे हो, हमें नहीं दोगे।'
ये दृश्य वहां कई लोगों के साथ ही परमहंस जी भी देख रहे थे कि कैसे वह साधु उस कुत्ते से मनुष्य की तरह बात कर रहा है, उसे सीने से लगा रहा है। वह साधु कुत्ते की रोटी में से थोड़ा सा हिस्सा लेकर खाने लगा। उसके बाद मंदिर में दर्शन किए। विधि-विधान से देवी की स्तुति की और वहां से चल दिया।
रामकृष्ण परमहंस ने अपने भतीजे को बुलाया, जिसका नाम हृदय मुखर्जी था। उन्होंने भतीजे से कहा, 'हृदय तू हमेशा पूछता है ना कि साधु कैसे होते हैं तो जा इस साधु के पीछे-पीछे और ये तूझसे कुछ कहे तो मुझे आकर वह बात बताना।
भतीजा उस साधु के पीछे चलने लगा तो साधु ने हृदय मुखर्जी से कहा, 'क्या बात है, तुम मेरे पीछे क्यों आ रहे हो?'
हृदय ने कहा, 'मुझे आपसे कोई शिक्षा चाहिए।'
साधु ने कहा, 'जिस दिन मंदिर में ये जो गंदा घड़ा रखा है, उसमें भरा पानी और गंगाजल को एक मानने लगोगे तो तुम साधु बन जाओगे। बहुत सारा शोर और किसी की बंशी की मधुर आवाज को एक समान मानने लगोगे और दोनों ही मधुर लगने लगे तो समझ लेना कि तुम सच्चे ज्ञानी बन रहे हो।'
ये बात हृदय ने परमहंस जी से कही तो परमहंस जी ने कहा, 'यही साधु का लक्षण है। उन्हें भूख लगी तो वे कुत्ते के पास जाकर बैठ गए और उसकी रोटी में से हिस्सा खाने लगे। उन्होंने तुमसे भी कहा कि भेद मिटा दो। एक साधु के भीतर सबसे बड़ी पूंजी होती है सजहता और समानता।'
सीख - जीवन में बहुत अधिक भेदभाव करने से मन अशांत हो जाता है और हम लक्ष्य से भटक जाते हैं। सुख-शांति पाना चाहते हैं तो छल-कपट न करें, भेदभाव न करें, ईमानदारी से काम करें और क्रोध से बचें।
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