अनिता गुप्ता (जमशेदपुर). आदिवासियों की समृद्ध भाषा संथाली के मौजूदा स्वरूप के पीछे एक आठ साल के बच्चे की जिद और जुनून है। 1925 के पहले तक यह संथाली गांवों में सिर्फ बोली जाती थी। इसके न वर्ण थे न अक्षर। आठ साल के रघुनाथ मुर्मू ने अपनी ही भाषा में पढ़ने की ठानी। प्रकृति के उपासक आदिवासी समाज के उस बच्चे ने जल, जंगल, जमीन के संकेतों को समझकर वर्ण गढ़ना शुरू किए। 12 साल की मेहनत के बाद उस बच्चे ने संथाली भाषा की ओलचिकी लिपि का आविष्कार किया।
ओलचिकी का आविष्कार न होता तो दंत कथाओं में सिमट जाती
झारखंड के सरहदी इलाके में बसे ओडिशा के मयूरभंज जिले के डांडबूस गांव को ओलचिकी का जन्मस्थल कहा जा सकता है। करीब 500 की अाबादी वाले इस गांव की में बोलचाल की मुख्य भाषा संताली थी। 5 मई 1905 को यहां रघुनाथ मुर्मू का जन्म हुआ। पिता नंदलाल मुर्मू गांव के प्रधान और चाचा तत्कालीन राजा प्रताप चंद्र भंजदेव के दरबार में मुनीम थे। परिवार संपन्न था और पैसों की कमी नहीं।
पिता ने रघुनाथ का दाखिला उड़िया मीडियम स्कूल में करा दिया। बचपन से उनकी आदत गहराई से चीजों को जानने की रही। जो बातें समझ में नहीं आती, शिक्षकों से सवाल किया करते। स्कूल में उड़िया में पढ़ाई होती, इस कारण कई बार शिक्षकों का जवाब उनकी समझ में नहीं आता था। क्लास में भी विषय समझ नहीं आने के कारण वे अकसर सो जाया करते। शिक्षक कारण पूछते तो रघुनाथ संताली में पढ़ाने की जिद करते। कुछ दिनों के बाद रघुनाथ ने स्कूल जाना बंद कर दिया।
पिता नंदलाल मुर्मू ने टोका तो उन्होंने संताली मीडियम स्कूल में दाखिला कराने की जिद की। इस पर पिता गुस्सा होकर बोले- संताली भाषा का कोई स्कूल नहीं है। स्कूल क्या, न इसका वर्ण है और न लिपि। ऐसे में फिर तू अनपढ़ ही रहेगा। पिता की बातें सुनकर रघुनाथ ने कहा-ठीक है, मैं खुद संताली लिपि बनाऊंगा। संताली मीडियम स्कूल भी खोलूंगा। उस समय रघुनाथ 8 साल के थे। पिता की बातें उनके दिलों-दिमाग में इस तरह बैठ गई कि वे दिन-रात लिपि की खोज में लग गए। आदिवासी समाज प्रकृति प्रेमी होता है इसलिए धरती, आकाश, नदी, पहाड़, पक्षी को ध्यान में रखकर वर्ण गढ़ना शुरू किया।
पहला अक्षर धरती, दूसरा आग पर लिपि में 6 स्वर और 24 व्यंजन
ओलचिकी लिपि गढ़ते समय रघुनाथ असमंजस में थे कि वर्णों कोे कैसे और किस आधार पर बनाया जाए। उनसे पहले किसी ने संताली लिखने के लिए कोई आधार तैयार नहीं किया था। ऐसे में रघुनाथ ने सबकुछ प्रकृति के सहारे छोड़ दिया। आदिवासी शुरू से प्रकृति का उपासक रहा है इसलिए वे पेड़-पौधे, नदी-तालाब, धरती-आसमान, आग-पानी का स्मरण करने लगे। पक्षियों की आवाज समझने लगे। घंटों नदी-आग के पास बैठकर चिंतन करने लगे। फिर पहला अक्षर धरती के स्वरूप जैसा ओत-(0) बनाया।
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