बोधगया में जिस स्थान पर भगवान बुद्ध ने ज्ञान की प्राप्ति की, वहां बौद्धों को पूजा करने का पूरा अधिकार है। उस पर दूसरे संप्रदाय, जिसे बौद्ध धर्म व पूजा की जानकारी नहीं है, का अधिकार गलत है। रविंद्र नाथ टैगोर महाबोधि मंदिर के संदर्भ में उक्त विचार रखते थे। रविंद्र नाथ टैगोर पहली बार 10 अक्टूबर 1904 को बोधगया आए थे। उनका बोधगया आगमन महाबोधि मंदिर को लेकर श्रीलंका के अनागारिक धर्मपाल व बोधगया मठ के विवाद को निपटाने के मकसद से हुआ था, लेकिन उन्होंने इसकी सार्थक कोशिश नहीं की।
सर एडविन अर्नाल्ड की महाकाव्य द लाइट ऑफ एशिया: द पोएम दैट डिफाइंड द बुद्ध ने श्रीलंका के अनागारिक धर्मपाल को भी प्रभावित किया था। इसी के बाद 21 जनवरी 1891 धर्मपाल बोधगया पहुंचें और महाबोधि मंदिर की बदहाली देखकर उसकी मुक्ति का प्रयास शुरू किया। उस दौर में महाबोधि मंदिर पर बोधगया मठ का अधिकार था। महाबोधि मंदिर से मठ अपना अधिकार छोड़कर उसे बौद्धों को सौंप दें, इसके लिए उन्होंने प्रतिष्ठित हिंदुओं को अपनी मुहिम से जोड़ा था।
उसी क्रम में रवींद्रनाथ टैगोर भी बोधगया आए, लेकिन वे बोधगया मठ के ही अतिथि बने और खुद को विवाद से दूर रखने की कोशिश की। रवींद्रनाथ टैगोर का बोधगया का दौरा करने और महंत सहित अन्य को मंदिर पर अधिकार छोड़ने के लिए मनाएगें, उनकी बात को हिंदु मानेगें, ऐसा धर्मपाल को विश्वास था।
सिस्टर निवेदिता पहुंची बोधगया
सिस्टर निवेदिता 10 अक्टूबर 1904 को 20 सदस्यीय दल के साथ गिरिडिह होते बोधगया पहुंची थी। उनके दल में बीस पुरुष और महिलाएं शामिल थीं, जिनमें वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस और उनकी पत्नी, रवींद्रनाथ टैगोर और उनके बेटे और इतिहासकार जदुनाथ सरकार, स्वामी श्रद्धानंद, ब्रह्मचारी अमूल्य शामिल थे। शाम को चाय पीने के बाद लाइट ऑफ एशिया पढ़ी और महाबोधि मंदिर और बोधिवृक्ष देखा था। उस समय कृष्ण दयाल गिरि महंत थे।
बुद्ध से प्रभावित हुए टैगोर
टैगोर को उनके गीतांजलि नामक काव्य के लिए साहित्य का 1913 का नोबेल पुरस्कार मिला था व भारतीय राष्ट्रवाद के कवि और बीसवीं सदी के भारत के प्रतिष्ठित सांस्कृतिक और साहित्यिक व्यक्तित्व थे। 1859 में उनके पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर श्रीलंका गए थे और बुद्ध के जीवन और उनकी शिक्षाओं में न केवल ज्ञान बल्कि गहरी रुचि के साथ वापस आए थे। उन्होंने 1882 में शाक्य मुनि पर ओ निर्वाण तत्त्वई लिखा। रवींद्रनाथ के बड़े भाई सत्येंद्रनाथ टैगोर ने 1901 में बौद्ध धर्म पर पुस्तक लिखी।
द लाइट ऑफ एशिया ले कर गए
बोधगया जाने पर रविंद्रर नाथ टैगोर अपने साथ द लाइट ऑफ एशिया ले गए थे। महाबोधि मंदिर पर टैगोर का रुख नरम था। टैगोर ने उसी दौर में मठ के पुस्तकालय को भी देखा व सराहना की। उनकी कविता और उनके उपन्यासों पर बुद्ध का प्रभाव विविध रूपों में पड़ा।
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