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बक्सर में दुर्लभ महिषासुर मर्दनी की मूर्ति..1500 किलो है वजन:250 साल पहले साधु के सपने में आई देवी, गड्ढे से निकाली गई थी प्रतिमा

बक्सर2 महीने पहले
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बक्सर के सिताबपुर गांव में अति दुर्लभ महिषासुर मर्दिनी की षष्टभुजी प्रतिमा है। क्षेत्र में कहानी प्रचलित है कि तकरीबन 250 वर्ष पूर्व मां भगवती की स्वर्ण आभा एक साधु के सपने में आई। इसके बाद ग्रामीणों के सहयोग से कीचड़ भरे गड्ढे से निकाली गई। जो 4 फिट की लगभग 1500 किलो वजनी है।

ग्रामीणों की माने तो मां की शक्ति व इनके चमत्कार के कई चर्चे गांव में मशहूर है। खुदाई में तांबे के सिक्के, मूर्तियां मिल चुकीं है। हालांकि अभी तक पुरातत्व विभाग और प्रशासनिक नजर इस मंदिर पर न पड़ने के कारण इसके भूगर्भ में छिपे रहस्य से लोग आज भी अनजान है।

नवरात्रि को लेकर श्रद्धालुओं की उमड़ी भीड़

चैत्र नवमी को लेकर देवी की पूजा पूरे ही विधि विधान और धूम धाम से हो रहा है। आज चैत नवमी के सातवें दिन माता कालरात्रि की पूजा की जा रही है। बक्सर जिला मुख्यालय से करीब 35 किलोमीटर की दूरी पर राजपुर थाना क्षेत्र सिताबपुर गांव में क्षेत्रीय लोगों का भीड़ पूजा पाठ के लिए लगता है।

सिताबपुर स्थित देवी माता षष्ट भुजी है। बांए हाथ से महिषासुर का जबड़ा पकड़ी हैं। वहीं दाहिने हाथ में त्रिशूल से महिषासुर के पीठ पर वार किया है। माता की प्रतिमा संभवत ग्रेनाइट पत्थर की है। मां की छह भुजाओं में शंख, खाड़ग, त्रिशूल एवं बाएं भुजा में घंटी,पद्म व महिषासुर(भैसे) का जबड़ा धारण करती हैं।

मन्दिर की क्या है कहानी

ग्रामीण दिनेश पाण्डेय ने बताया कि तकरीबन250 वर्ष पूर्व मां भगवती की स्वर्ण आभा एक साधु के सपने में आई। जिन्होंने साधु से पूछा कि क्या वे गड्ढे(ग) में रहेंगी? उनकी पूजा नहीं होगी।साधु ने यह बात ग्रामीणों को बताई तो लोगों को यकीन नहीं हुआ। गड्ढे में तब गंदा पानी और कीचड़ भरा था।

कालांतर में मां ने वहीं सपना अन्य लोगों को भी दिया। तब गड्ढे में मूर्ति की तलाश शुरू हुई तो मूर्ति पाई गई। लेकिन इतनी भारी थी कि कई लोगों से भी उठ न सकी। बाद में साधु और अन्य ग्रामीणों के प्रयास से मूर्ति को बाहर निकला गया।तब वहां मंदिर बना। मां को चांदी का मुकुट व मुखौटा पांच वर्ष पूर्व लगाया गया है।

पाल कला की शैली में हुआ है निर्माण

काल के साथ देवी पूजा को परम्पराओं में भी काफी बदलाव आया है। पहले देवी दुर्गा के इसी महिषासुर मर्दनी रूप की प्रतिओं का चलन और पूजा का दौर था। चौथी पाचवी शताब्दी में देवी के इस रूप की आराधना ज्यादा होती थी। 10-12 शताब्दी में सप्तमातृकाओं की पूजा चलन बढ़ा।

मंदिर के पुजारी 75 वर्षीय हरिनारायण पांडे ने बताया कि करीब 150 वर्षों से माता की पूजा मंदिर में हो रही है। लेकिन आज तक न तो पुरातत्व सर्वेक्षण ना ही प्रशासनिक अधिकारियों की नजर इस अद्भुत प्रतिमा पर पड़ी है। जिसके चलते इसके बारे में सूबे के लोगों को जानकारी नहीं है। कुछ जानकरों ने तस्वीर देखकर बताया कि यह आठवीं शताब्दी की हो सकती है। यह पाल कालीन मूर्त कला शैली की प्रतिमा है।

डीह की मिट्टी में मिलते हैं सिक्के व मूर्तियां

दयालपुर, भगवानपुर तथा ईश्वरपुर गांवों के बीच सीतापुर है। ग्रामीण दिनेश पांडेय कहते हैं कि मूर्ति का पुरातात्विक सर्वेक्षण अब तक नहीं हुआ है।सीताबपुर का दुर्गा डीह 7 एकड़ में फैला है। भूमि माताजी के नाम से खाते में दर्ज है। खुदाई में तांबे के सिक्के, मूर्तियां मिलती हैं। हॉल ही में गणेश जी की मूर्तियां भी मिली हैं। हालांकि इस बात की जानकारी प्रशासन को नहीं है।मां की शक्ति व इनके चमत्कार के कई चर्चे गांव में मशहूर हैं।