गया में दुर्गा पूजा महोत्सव एक बार फिर से नजदीक आ गया है। इसके बावजूद लगातार दूसरी बार मां दुर्गा की प्रतिमाओं का ऑडर मूर्तिकारों के पास नहीं है। इस समस्या ने मूर्तिकारों के समक्ष जर्बदस्त रूप से रोजी रोटी का संकट खड़ा कर दिया है। वह अपनी कला को छोड़ कर राज मिस्त्री और दिहाड़ी मजदूर का काम करने को मजबूर हैं। दुर्गा पूजा की हर वर्ष जबर्दस्त धूम रहती थी। लेकिन, कारोना की वजह से यह मामला ठंडा पड़ा हुआ है। ठंडा ऐसा पड़ा है कि लोगों का रोजगार छिन लिया है।
दुर्गा पूजा के मौके पर शहर से लेकर गांव तक बड़ी छोटी प्रतिमाओं का जबरदस्त कारोबार होता था। एक-एक कारीगर 50-75 प्रतिमाएं तैयार करता था। एक प्रतिमा की कीमत न्यूनतम 2000 और अधिकतम 15 हजार रुपये होते थे। इसके अलावा प्रतिमा बैठाने वाले अपने हिसाब से प्रतिमा तैयार करवाते थे, उसकी कीमत 25 हजार से लेकर 50 हजार रुपए या फिर उससे अधिक जाते थे। लेकिन पिछले दो साल से ऐसा कुछ भी इन कलाकारों के पास ऑडर नहीं है। हालांकि, वह मूर्ति तैयार कर रहे हैं पर छोटी। वह भी इस उम्मीद पर कुछ लोग तो शायद उनकी बनाई प्रतिमा अपने गांव व घर के लिए ले जाएं।
मानपुर में मूर्तिकारों की संख्या करीब 15 के पास है। ये सभी अलग-अलग प्रतिमाएं तैयार करते हैं। वहीं बागेश्वरी, नई गोदाम और पिता महेश्वर के आसपास भी जबर्दस्त रूप से प्रतिमा का कारोबार होता है। इन मूर्तिकारों की मानें तो शहर-शहर में सिर्फ प्रतिमाएं करीब 200-250 के बीच बिक जाती थीं। इसमें बड़े व छोटे सभी शामिल हैं। इसके अलावा गांव के लोग भी यहां से प्रतिमाएं ले जाते हैं। ऑर्डर पर बनाई जाने वाली प्रतिमाओं की कीमत आम प्रतिमाओं से कई गुणा अधिक होती हैं क्यों कि उसमें पार्टी के अनुसार काम अधिक होता है।
मूर्तिकारों की मानें तो दुर्गा पूजा के सीजन में एक कारीगर 2 से ढाई लाख रुपये का कारोबार करता था। मसलन शहर में 50 कारीगर हैं तो कुल मिला कर एक करोड़ रुपये के आसपास का कारोबार कोरोना काल के पहले होता था जो बीते दो साल से पूरी तरह से ठप पड़ा है। मानपुर के मूर्तिकार सरयु प्रजापति कहते हैं कि बीते दो साल से हम कैसे जी रहे और कैसे परिवार को चला रहे, यह ईश्वर ही जानता होगा। पूरा कारोबार नष्ट हो गया है। जैसे-तैसे जीवन चल रहा है।
वहीं प्रदीप कुमार का कहना है कि बचपन से ही इस कला से जुड़ा हूं। सीजन का शिद्दत से इंतजार रहता था। लेकिन उस कारोना की नजर लग गई है। जिससे हमारा कारोबार लगभग छिन गया है। पूरे साल में दो चार लाख रुपये कमा लेते थे उसी से साल भर परिवार का भरण पोषण करते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है। दूसरे लोग तो दूसरे रोजगार भी कर ले रहे हैं पर हम तो दिव्यांग हैं हम तो दूसरा रोजगार भी नहीं कर सकते।
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