संडे बिग स्टोरीभाजपा का बिना नीतीश एक्शन प्लान:16% वोट के जुगाड़ के लिए जाति का डोज; CM के करीबियों पर नजर

पटना2 महीने पहलेलेखक: शंभू नाथ
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जनवरी लास्ट में दो बयान आए। पहला- बिहार बीजेपी के प्रदेश प्रभारी विनोद तावड़े का। उन्होंने कहा- हम किसी भी सूरत में जेडीयू और नीतीश कुमार से किसी प्रकार का कोई गठबंधन नहीं करेंगे। इस पर सीएम नीतीश बोले- मर जाएंगे, लेकिन अब बीजेपी के साथ कभी नहीं जाएंगे।

इन दो बयानों के बाद अब ये स्पष्ट हो गया है कि बीजेपी और नीतीश के बीच कभी न पटने वाली खाई बन गई है। आरजेडी के नेताओं की तरफ से लगातार सीएम नीतीश कुमार पर हो रहे निजी हमलों के बाद एक बार फिर से ऐसे कयास लगने लगे थे कि राज्य में लोकसभा चुनाव से पहले एक बार फिर से सत्ता पलट हो सकता है। इन बयानों के बाद इस तरह के चर्चाओं पर पूरी तरह विराम लग गया है। लोकसभा चुनाव भले अभी करीब 15 महीने दूर हो, लेकिन बिहार में अभी से चुनावी बिसात बिछनी शुरू हो गई है।

अब सबसे पहले समझिए नीतीश कुमार के जाने से भाजपा को क्या-क्या हुआ नुकसान

  • बिहार की सत्ता से बेदखल हो गई।
  • राज्य में एनडीए (जेडीयू 15.39%+बीजेपी 19.46%) का वोट शेयर 35% से घटकर मात्र 24% (बीजेपी+ लोजपा 5.66%) रह गया।
  • लोकसभा में एनडीए के 16 सांसद कम हो गए।
  • बीजेपी के सामने 2024 लोकसभा चुनाव की टेंशन खड़ी हो गई।

नीतीश कुमार मतलब 16% वोट की गारंटी

ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि नीतीश कुमार की छ‌वि न केवल एक साफ-सुथरे नेता और कुशल प्रशासक की है। नीतीश मतलब बिहार में 16% वोट की गारंटी। विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव उनके वोटों का ग्राफ हमेशा बेहतर रहा है। चुनावों के आंकड़ों को देखें तो हर चुनाव में उनकी पार्टी को औसतन 22% वोट मिले हैं। नीतीश कुमार का विधानसभा की तुलना में लोकसभा चुनाव में ट्रैक रिकॉर्ड ज्यादा बेहतर है।

2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार जब नरेंद्र मोदी के विरोध में एनडीए से अलग होकर अकेले चुनाव लड़े तब भी नीतीश कुमार को 16% वोट मिले थे। इतना ही नहीं, उनकी पार्टी 2 सीटें जीतने में भी कामयाब रही थी।

वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने जैसे ही BJP से हाथ मिलाया तो NDA का वोट शेयर करीब 18% बढ़कर 54.34% हो गया। प्रदेश की 40 सीटों में से NDA को 39 सीटें मिली और विपक्ष से सिर्फ कांग्रेस 1 सीट ही जीत सकी थी।

अब समझिए, अगर नीतीश महागठबंधन के साथ लड़ें तो क्या परिणाम हो सकते हैं

2014 लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार भले ही एनडीए से अलग हो गए थे, लेकिन वे महागठबंधन में भी शामिल नहीं हुए थे। राज्य में (बीजेपी, आरजेडी और जेडीयू के बीच) त्रिकोणीय मुकाबला हुआ था। तब एनडीए गठबंधन को 37% वोट और 31 सीटें मिलीं थी। (बीजेपी-29.4% 22 सीट, लोजपा-6.40% 6 सीट और रालोजपा 3%3) जबकि आरजेडी को 20.14% वोट के साथ 4 सीटें मिलीं थी वहीं जेडीयू को 15.80% वोट शेयर के साथ 2 सीटें मिली थीं। वहीं कांग्रेस को 8.40 वोट शेयर के साथ 2 सीटें मिली थीं।

अब अगर महागठबंधन एकजुट होती है तो लगभग 45% के आसपास वोट शेयर पर वे कब्जा जमा सकते हैं। इसे समझने के लिए 2015 विधानसभा चुनाव के नतीजों को देख लीजिए। 2015 में नीतीश कुमार ने लालू यादव और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। तब महागठबंधन (JDU+RJD+कांग्रेस) को 41.84% वोट मिले, सीटें 178 पहुंच गईं।

इसमें लेफ्ट और मांझी की पार्टी शामिल नहीं थी। अगर इनके वोट मिला लें तो ये आंकड़ा 45% के आसपास पहुंच जाता है। आरजेडी के भले एक भी सांसद फिलहाल नहीं हो, लेकिन जेडीयू के 16 और कांग्रेस के 1 सीटिंग सांसद अभी भी हैं।

अब, बीजेपी की तरफ से नीतीश की क्षति-पूर्ति की पूरी रणनीति समझिए

इधर, चुनाव से पहले बीजेपी भी नीतीश कुमार की क्षति-पूर्ति में जुट गई है। नीतीश के विकल्प के रूप में बीजेपी अब न केवल राज्य में जातीय समीकरण साध रही है, बल्कि नीतीश कुमार को किस तरह कमजोर किया जाए? इस मोर्चे पर भी काम कर रही है। सबसे पहले नीतीश कुमार के बेहद करीबी रहे आरसीपी सिंह को उनसे दूर किया गया।

इसके बाद अब कुशवाहा का इस्तेमाल कर नीतीश कुमार के कोर वोट-बैंक अतिपिछड़ा वर्ग में सेंधमारी करने की कोशिश की जा रही है। दलित वोट बैंक को साधने के लिए चिराग पासवान पहले ही बीजेपी को अपना समर्थन देने का ऐलान कर चुके हैं। चर्चाओं की मानें तो पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी को भी अपने पाले में करने की जुगत में पार्टी जुट गई है।

आरसीपी के बहाने कुर्मी वोट बैंक में जगह बनाने की कोशिश

बिहार में नीतीश कुमार कुर्मी वर्ग के सबसे बड़े नेता हैं। 1990 के बाद उनके इस कद को किसी ने टक्कर नहीं दी है। नीतीश कुमार की ताकत अभी भी अत्यंत पिछड़ा वर्ग है। बीजेपी ने अब इसी में सेंधमारी शुरू कर दी है। सबसे पहला आघात नीतीश कुमार की जाति पर कभी उनके बेहद करीबी रहे आरसीपी सिंह के माध्यम से की गई है।

आरसीपी सिंह की ताकत- 2% वोट में करवा सकते हैं बंटवारा

आरसीपी सिंह न केवल नीतीश कुमार के करीबी नेता रहे हैं बल्कि वे नीतीश कुमार की ही जाति कुर्मी जाति से आते हैं। इतना ही नहीं, वे उनके गृह जिले नालंदा से भी आते हैं। ऐसे में आरसीपी सिंह के माध्यम से बीजेपी नीतीश कुमार को उनके घर में ही घेरने की कोशिश कर रही है।

आरसीपी सिंह बहुत पहले से ही बीजेपी के सुर में सुर मिला रहे हैं लेकिन वे बीजेपी में शामिल होंगे या अपनी पार्टी बनाएंगे अभी ये तय नहीं हो पाया है। सूत्रों की मानें तो एक चर्चा इस बात की भी है कि आरसीपी की सीधी एंट्री की जगह एक पार्टी बनवा कर उनका समर्थन लिया जाए।

कुशवाहा बिहार में लव-कुश के समीकरण को तोड़ेंगे

आरसीपी सिंह के बाद अब बीजेपी ने उपेंद्र कुशवाहा को साथ लाने की कवायद शुरू कर दी है। उन्हें किस तरह समायोजित किया जाए ? इस पर भी मंथन शुरू हो गया है। एक चर्चा ये है कि उपेंद्र कुशवाहा एक बार फिर से अपनी पार्टी (राष्ट्रीय लोक समता पार्टी) को जिंदा कर सकते हैं, जिसका विलय उन्होंने 2021 में जेडीयू में किया था। चुनाव आयोग ने अभी तक उनकी पार्टी को ऑफिशियली मर्ज नहीं किया है। पार्टी को रिवाइब कर वो 2014 की तरह एनडीए के साथ आकर चुनाव में उतर सकते हैं। उन्हें 3-5 लोकसभा सीटों पर टिकट दिया जा सकता है।

उपेंद्र कुशवाहा की ताकत- 10% की आबादी में 2.5% की गारंटी

2014 के लोकसभा चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा एनडीए से चुनाव लड़ी। तीन सीटों (काराकाट, सीतामढ़ी और जहानाबाद) से अपनी पार्टी के उम्मीदवार उतारे। पार्टी का सक्सेस रेट 100% रहा। पार्टी तीनों सीटें जीतने में कामयाब रहीं। 2020 के विधानसभा चुनाव में उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी 99 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ी। सीट भले एक भी न जीते हों लेकिन 2.5% वोट बैंक लाने में कामयाब रहे।

बीजेपी उपेंद्र कुशवाहा पर डोरे क्यों डाल रही है इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि अभी भी राज्य में यादव के बाद सबसे बड़ी आबादी कुशवाहा समाज की है।राज्य भर में कुशवाहा की कुल आबादी लगभग 10 प्रतिशत की है। इनमें लगभग 2.5 प्रतिशत का समर्थन अकेले उपेंद्र कुशवाहा को माना जाता है।

चिराग के बहाने-6% महादलित वोटों में घेरेबंदी

आरसीपी सिंह और उपेंद्र कुशवाहा के बहाने जहां बीजेपी अति पिछड़ा वोटों में बैटिंग करने की तैयारी कर रही है तो वहीं दलित वोट वर्ग के लिए चिराग पासवान को तैयार किया जा रहा है। चिराग पासवान कह चुके हैं उनकी बीजेपी से बात चल रही है। चिराग को अपने पाले में करने के लिए बीजेपी उनके धुर विरोधी उनके चाचा पशुपति पारस की पार्टी का बीजेपी में विलय करा सकती है।

चिराग पासवान बीजेपी के लिए वो खिलाड़ी साबित हो सकते हैं जो एकमुश्त 6% दलित वोट उनके पाले में कर सकते हैं। चिराग भी खुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हनुमान बताकर इसका इशारा कर चुके हैं। इतना ही नहीं, कुढ़नी, मोकामा और गोपालगंज उपचुनाव के आखिरी समय में अपनी उपस्थिति जताकर कर चिराग पासवान ने अपनी महत्ता को भी साबित कर दिया है।

अब बीजेपी की इन कोशिशों के मायने को 3 पॉइंट में समझिए

1. केवल कुशवाहा का सपोर्ट नहीं, आरजेडी के नाराज नेताओं का समर्थन भी मिलेगा

वरिष्ठ पत्रकार अरुण पांडेय कहते हैं कि नीतीश कुमार की सियासत लालू विरोध की रही है। लेकिन अब उनके लालू के साथ हो जाने से बड़े खेमे में उनके खिलाफ नाराजगी है। ऐसे में उनका साथ छोड़ने वाले लोगों को इन नाराज लोगों का भी समर्थन मिलेगा। वे कहते हैं कि हालिया तीन उपचुनाव में ये नाराजगी देखने को भी मिली है। गोपालगंज, कढ़नी और मोकामा उपचुनाव के नतीजों से दिखता है कि अभी भी एक बड़ा वर्ग जो जेडीयू के साथ जुड़ा था वो आरजेडी को स्वीकार नहीं कर पा रहा है।

2.नीतीश के कमजोर होने का लाभ आरजेडी को भी मिलेगा

अरुण पांडेय कहते हैं कि लालू यादव को छोड़ दें तो नीतीश कुमार के कद का बिहार में कोई नेता फिलहाल न तो बिहार की सियासत में है और न ही बीजेपी में दिखता है। ऐसे में बीजेपी तो नीतीश कुमार को कमजोर करने के मिशन में जुटी हुई है ही आरजेडी भी चाहेगा कि नीतीश कुमार कमजोर बनें। लोकसभा में वे जितना कमजोर बनेंगे। विधानसभा चुनाव में तेजस्वी की राह उतनी ही आसान होगी।

3. बीजेपी हर हाल में मुकाबले को बराबरी का बनाना चाहती है

वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेल्लारी कहते हैं कि बीजेपी की कोशिश केवल नीतीश कुमार को कमजोर करने की नहीं है। इसके साथ वो 2024 के मुकाबले को बराबरी का बनाने की जुगत में है। वे कहते हैं कि इसमें कोई दो मत नहीं है कि उपेंद्र कुशवाहा अभी भी कुशवाहा समाज के सबसे ज्यादा स्वीकार्य लीडर हैं। जमीन पर उनकी पकड़ भी है। बड़ा उलटफेर करने का माद्दा भी रखते हैं। इसके अलावा चिराग पासवान पहले ही संकेत दे चुके हैं। इन लोगों के बीजेपी में आ जाने के बाद 2024 का मुकाबला बराबरी का होगा। बीजेपी भी यही चाहती है ताकि नीतीश और तेजस्वी को चुनौती दी जा सके।

बीजेपी के सामने सीट बचाने की है सबसे बड़ी चुनौती

2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार में लोकसभा की 40 में से 39 सीटों पर एनडीए ने कब्जा जमाया था। इनमें 17 सीटें बीजेपी, 16 सीटें जेडीयू और 6 सीटें एलजेपी जीतने में कामयाब रही थी। एक मात्र किशनगंज की सीट कांग्रेस जीतने में सफल रही थी। अब 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती सीटें बचाने की है। एक्सपर्ट की मानें तो उन्हें सहयोगियों को जोड़ने में किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं है।

वे जेडीयू कोटे की सीटें सहयोगियों को दे सकते हैं, लेकिन चुनौती है जीत दिलाने की है। वहीं इसके उलट नीतीश कुमार के पास सबसे बड़ी बाधा आएगी अपनी सीटों को वापस हासिल करने में। उनके साथ 7 दलों का गठबंधन है। इसके उलट आरजेडी भी उनसे बराबरी सीट की मांग करेगी।

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