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बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर तरह-तरह के सवाल पूछे जा रहे हैं। लोगों के दिमाग में कौन-कौन मुद्दे प्रभावी होंगे? चिराग पासवान जदयू को कितना नुकसान पहुंचाएंगे? रामविलास के निधन के बाद लोजपा के पक्ष में किस कदर सहानुभूति लहर पैदा होगी? आदि...।
सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि प्रवासी मजदूरों का मत चुनाव में किस ओर झुकेगा? लॉकडाउन में घर वापसी और क्वारेंटाइन सेंटरों में बेइंतहां तकलीफ झेलने वाले ये मजदूर क्या जदयू+भाजपा के खिलाफ चुनाव में गुस्सा उतारेंगे?
यह सही है कि लॉकडाउन में बड़ी संख्या में बाहर पढ़ने या कमाने गए बिहार के लोगों ने गांव लौटने के क्रम में काफी कठिनाइयां झेलीं। लेकिन कई कारणों से यह तबका चुनाव नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखता। पहला, कई तो अपने गांव वोट डालने के लिए लौटेंगे ही नहीं। कई का नाम अपने गांव की वोटर लिस्ट में है ही नहीं (हालांकि चुनाव आयोग ने अभियान चला कर लौटे प्रवासी मजदूरों का नाम जोड़ा भी है)। दूसरा, इनका गुस्सा तभी तक कायम रहा जब तक यह रास्ते में थे।
जैसे ही अपनाें से मिले, गुस्सा शांत पड़ गया और वे जीविका जुटाने में व्यस्त हो गए। जो नहीं लौटे, वे पंचायत चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव के लिए लौटेंगे भी नहीं। पंचायत चुनाव नितांत स्थानीय होता है, जिसमें प्रवासी लोगों की दिलचस्पी अधिक होती है क्योंकि इसमें एक-एक वोट का महत्व होता है।
और तो और प्रवासी वोटरों का वोटिंग पैटर्न बताता है कि वे कभी भी प्रवासी पीड़ा के वशीभूत होकर वोट नहीं करते बल्कि स्थानीय सवालों से जुड़कर वोट करते हैं। बहुतों के लिए बेरोजगारी वोट देने का मुद्दा हो सकता है, लेकिन यह कोई नया सवाल नहीं है। यह हर चुनाव में रहा है। बिहार बेरोजगारी बड़ा मुद्दा है पर इतना भी बड़ा नहीं कि यह चुनाव की दशा-दिशा मोड़ दे।
रही बात उस आंकड़े की जो बताए कि बिहार से बाहर काम करने वालों की कितनी संख्या है तो ऐसा कोई प्रामाणिक डाटा भी नहीं है। कितने लोग बाहर पढ़ रहे हैं, उनकी संख्या भी प्रामाणिक ढंग से मालूम नहीं है। लेकिन एक अवधारणा बनी हुई है कि इनकी संख्या ठीक-ठाक है। सीएसडीएस के शोध के मुताबिक बिहार के 40% घरों का कोई न कोई सदस्य राज्य से बाहर है। इनमें विदेशों में रहने वालों की संख्या देश के बड़े शहरों में रहने वालों की तुलना में कम है। प्रवासी बिहारियों में ज्यादातर नौजवान हैं।
चाहे वे पढ़ने गए हों या फिर कमाने गए हों। इनकी औसत आयु 32 साल है और यह सभी जाति-वर्ग समूह से हैं पर इनमें उच्च वर्ग के लोगों की संख्या कम है। ज्यादातर दलित और पिछड़ी जातियों के हैं। जाति से इतर इन प्रवासियों में एक तथ्य आम है कि सभी आर्थिक दृष्टि से कमजोर पृष्ठभूमि से आते हैं।
इनमें 85% भूमिहीन हैं या उनके पास बहुत ही थोड़ी सी जमीन है और 80% हाईस्कूल तक ही पढ़े हैं। चूंकि प्रवासियों का बड़ा तबका गरीब है, लिहाजा उनके वोट देने का तौर-तरीका भी आम गरीबों जैसा ही है। सीएसडीएस-लोकनीति का अध्ययन बताता है कि गरीब व निम्न वर्ग का वोट चुनाव में कई खंडों में बंटता रहा है। 60% वोट राजग व राजद में बंटता है, 40% वोट छोटे क्षेत्रीय दलों में छिटक जाता है। फरवरी 2005 और अक्टूबर 2005 का चुनाव लोजपा अकेले लड़ी थी तब उसे क्रमश: 14% व 18% वोट गरीब तबके का मिला था।
2015 के चुनाव में जब राजद-जदयू ने गठजोड़ किया बड़ी संख्या में गरीब तबके का वोट महागठबंधन को मिला। 2010 के विधानसभा चुनाव में गरीबों का 34% वोट राजग को मिला, तब नीतीश एनडीए का हिस्सा थे। साक्ष्यों से साबित है कि बीते कुछ वर्षों में गरीब तबके का झुकाव राजद की ओर बढ़ा है। दूसरे दलों की अपेक्षा राजद को गरीब और निम्न वर्ग का अधिक वोट मिला है।
उन चुनावों में भी जब राजद, एनडीए से हार गया। लॉकडाउन और कोरोना के कारण उपजी स्थितियों से सही ढंग से नहीं निबटने से गुस्साएं गरीबों और निम्न आय वर्ग के लोगों का झुकाव क्या राजद+कांग्रेस+वाम दलों की ओर होगा? वाम दल बिहार ही नहीं, अन्य राज्यों में भी गरीबों की पहली पसंद की पार्टी है।
राजद का गठजोड़ भी इस चुनाव में बेरोजगारी को मुद्दा बनाए हुए है। बेरोजगारी, ऐसा मुद्दा है जिसकी मात्रा भले ही अलग हो लेकिन हर तबके से यह जुड़ा हुआ है। गरीब व मध्य आय वर्ग इससे सर्वाधिक प्रभावित है। और यही कारण है कि यह तबका रोजी की तलाश में बिहार से बाहर जाने को विवश है। सवाल वहीं खड़ा है... क्या राजद इस गरीब व निम्न वर्ग को अपनी ओर मोड़ने में कामयाब हो पाएगा? और क्या इसके बूते महागठबंधन बिहार में राजग को चुनौती दे पाएगा?
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