उपेंद्र कुशवाहा अपनी पार्टी RLSP को लेकर जदयू में चले आए। वहां आते ही CM नीतीश कुमार ने उन्हें जदयू के संसदीय बोर्ड का चेयरमैन बना दिया। इस भारी भरकम पोस्ट को लेकर कुशवाहा और उनके कार्यकर्ता फूले नहीं समा रहे थे। वह संसदीय बोर्ड के चेयरमैन तो बन गए, लेकिन उनके चेयरमैन बनने के बाद उन्होंने अपने कार्यकाल में एक भी बैठक नहीं बुलाई। बोर्ड में एक भी सदस्य नहीं है।
कुशवाहा को ऐसे किया गया खुश
कुशवाहा ने जब अपनी पार्टी का विलय किया तो उस वक्त जदयू की परिस्थितियां अलग थी। RCP सिंह को नया अध्यक्ष बनाया गया था। उन्हें हटा कर राष्ट्रीय अध्यक्ष तो बनाया नहीं जा सकता था। तब पार्टी के पास एक मात्र संसदीय बोर्ड के चेयरमैन का पोस्ट था, जिसे उन्हें दे दिया गया। बोर्ड का चेयरमैन राष्ट्रीय अध्यक्ष के बराबर का पोस्ट होता है। ऐसे में जदयू ने अपने एक तीर से कई शिकार कर लिए। RCP भी राष्ट्रीय अध्यक्ष रह गए और उपेंद्र कुशवाहा भी खुश हो गए।
चुनाव के बाद पद का महत्व नहीं
पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की भूमिका तो अक्सर दिखती है। कई मामलों में राष्ट्रीय अध्यक्ष की अनुमति की जरूरत पड़ती रहती है, लेकिन संसदीय बोर्ड के चेयरमैन की भूमिका जब तक देश या राज्य में चुनाव रहता है तभी तक दिखती है। चुनाव हो जाने के बाद इस पोस्ट का महत्व बहुत नहीं रह जाता है। तभी तो जब से कुशवाहा जदयू के संसदीय बोर्ड के चेयरमैन बने हैं, तब से कोई भी ना बैठक हुई और इत्तेफाक से कोई चुनाव भी नहीं हुआ।
क्या कहते हैं सियासी विशेषज्ञ
वरिष्ठ पत्रकार रवि उपाध्याय बताते हैं कि संसदीय बोर्ड के चेयरमैन की भूमिका बड़ी पार्टियों में देखने को मिलती है। छोटे दलों में इस पद का बहुत महत्व नहीं रह जाता है। चूंकि ये पद राष्ट्रीय अध्यक्ष के बराबर का होता है तो इस पोस्ट पर पार्टी के महत्वपूर्ण व्यक्ति को या फिर इस पोस्ट को राष्ट्रीय अध्यक्ष अपने पास ही रखते हैं।
कुल मिलाकर संसदीय बोर्ड का काम पार्टी के अंदर पार्लियामेंट्री अफेयर्स के मामले को देखने का होता है या फिर चुनाव के समय होता है। इसके अलावा ये पोस्ट सिर्फ दिखाने के लिए ही होता है।
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