कोरोना की पहली लहर के बाद बड़ी संख्या में लोगों ने हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी ली। रांची में ही लगभग एक लाख लोगों ने मार्च 20 से मई 21 तक 30 कंपनियों से पॉलिसी खरीदी। इस वर्ष अप्रैल-मई में जब कोरोना चरम पर था, तब निजी अस्पतालों ने कैशलेस बीमा पॉलिसी नहीं मानी और बिना कैश जमा कराए मरीजों को बेड नहीं दिया। जबतक पूरा कैश पेमेंट नहीं हुआ, मरीज ठीक होने के बाद घर नहीं जा सके।
बाद में बीमा कंपनियों में क्लेम किया, लेकिन खामियां निकालकर आवेदन रिजेक्ट कर दिए गए। जिनको भुगतान भी हुआ, उन्हें 50% के करीब पैसे मिले। सिर्फ रांची में ही 17 हजार बीमित लोगों अस्पतालों में भर्ती हुए। इनमें करीब 9 हजार का कैशलेस इलाज नहीं हुआ। उन्होंने बाद में क्लेम किया, लेकिन 80% से ज्यादा क्लेम रिजेक्ट कर दिए गए। बीमा विशेषज्ञों के अनुसार कोरोना के इलाज की गाइडलाइन तय नहीं होने के कारण इंश्योरेंस कंपनियों से क्लेम लेने प्रक्रिया जटिल हो गई। अस्पताल इस चक्कर में नहीं पड़ना चाह रहे थे, इसलिए कैश इलाज को तरजीह दी।
कोरोना संक्रमण की पहली लहर के बाद झारखंड में हजारों लोगों ने कैशलेस इलाज के लिए हेल्थ इंश्योरेंस लिया, पर दूसरी लहर में संक्रमित होने पर निजी अस्पतालों में कैश देने के बाद ही बेड मिला। क्लेम भुगतान भी ज्यादातर केस में 50 प्रतिशत के करीब हुआ।
अस्पतालों के कैश लेने के 3 बड़े कारण
1. अनाप-शनाप बिल बनाया, क्लेम फंसा
कोरोनाकाल में कई निजी अस्पताल ने अनाप-शनाप बिल बनाए, जबकि इलाज के लिए बीमा कंपनियों से फिक्स पैकेज पर टाइअप था। इससे अस्पतालों को भुगतान लेने में परेशानी हो रही थी।
2. कोरोना एड ऑन पॉलिसी नहीं होना
कोरोना के इलाज के लिए एडिशनल या स्पेशल कोरोना पॉलिसी लेनी थी। जिनके पास यह पॉलिसी एड ऑन थी, उनका भुगतान ही किया गया। यही वजह है कि कैशलेस इलाज काफी कम हुआ।
3.क्लेम भुगतान में ज्यादा समय लगना
इंश्योरेंस कंपनियां कई दस्तावेज मांगती हैं। अप्रैल-मई में ज्यादा मरीज थे, इसलिए अस्पतालों ने बीमा दस्तावेजों में समय नहीं बर्बाद करना चाहा। बेड भी खाली करवाना ज्यादा जरूरी था, इसलिए कैश लिया।
3 केस से समझिए कैसे हुआ इलाज
नहीं हुआ कैशलेस इलाज, नकद देना पड़ा
1. योगेश कुमार अप्रैल में रिंची हॉस्पीटल में एडमिट हुए थे। उनके पास कैशलेस बीमा था, पर अस्पताल ने बिना कैश डिपाजिट किए इलाज करने से साफ मना कर दिया। अभी तक उनका क्लेम सेटलमेंट नहीं हुआ है। कंपनी का कहना है कि मरीज को माइल्ड कोरोना था, इसलिए भुगतान नहीं हो सकता है।
दो माह बाद पैसे मिले वो भी 40% काटकर
2.रांची के रंजीत अग्रवाल एक निजी अस्पताल में भर्ती हुए। इलाज पर 1.20 लाख रुपए खर्च हुए। इनके पास भी कैशलेस बीमा था, लेकिन लाभ नहीं मिला। परिजनों ने पैसे जुटाकर इलाज कराया। करीब दो महीने बाद उन्हें 40 प्रतिशत काटकर भुगतान किया गया।
पिता की मौत हो गई, क्लेम में आधे पैसे मिले
3.रांची के मनीष बागड़िया के पिता कोरोना संक्रमित होने के बाद अप्रैल में सेंटेविटा अस्पताल में एडमिट हुए। कैशलेस बीमा के बावजूद कोई फायदा नहीं मिला। पूरे इलाज की रकम चुकानी पड़ी। बीमा कंपनी ने इन्हें माइल्ड कोरोना बताया। कुछ दिनों बाद उनके पिता की मौत हो गई। बाद में काफी मशक्कत के बाद एजेंट की सहायता से पैसे मिले वो भी आधे से कुछ ज्यादा।
अस्पतालों की दलील
मरीजों की संख्या ज्यादा होने से हुई परेशानी
अप्रैल-मई में मरीज काफी बढ़ गए थे। स्टाफ कम हो गए थे। बीमा का प्रोसेस करने में काफी समय लग रहा था। मरीज ज्यादा थे इसलिए एप्रूवल का इंतजार नहीं कर सकते थे।
-डॉ. अपूर्व रंजन, रामप्यारी अस्पताल
बीमा कंपनियों की कागजी उलझन ज्यादा
पीक के दौरान जान बचाना जरूरी था। बीमा कंपनियों की कागजी उलझन ज्यादा थी, इसलिए कैशलेस इलाज में परेशानी आई।
-डॉ शंभु प्र. सिंह, कांके जेनरल अस्पताल
इंश्योरेंस कंपनियों का तर्क
कई अस्पतालों में कैशलेस इलाज से मना किया
ज्यादातर अस्पतालों में कैशलेस इलाज से मना कर दिया। इसके लिए इरडा ने झाड़ भी लगाई थी। अस्पतालों को पेड केस मिल रहे थे, तो कैशलेस की तरफ ध्यान देना बंद कर दिया।
-जमील अख्तर, ओरिंएटल इंश्योरेंस
जानबूझकर कैशलेस इलाज नहीं किया
कुछ अस्पताल प्रबंधन से हमने बात की थी। उन्होंने बताया कि आपकी कंपनी से पैसे आने में देरी होती है, इसलिए पेड इलाज किया।
-प्रभात कुमार, स्टार हेल्थ
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