देशभर में भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम की जयंती मनाई जा रही है। झारखंड के गुमला में भगवान परशुराम का तप स्थल है। टांगीनाथ धाम से प्रसिद्ध ये स्थल अपने में कई रहस्य, अद्भुत प्राचीन मूर्तियां और लोक कथाएं संजोए है।
मान्यता है कि यहां भगवान परशुराम का फरसा गड़ा है। फरसा को झारखंड की स्थानीय भाषा में 'टांगी' कहा जाता है, इसलिए ये स्थल टांगीनाथ धाम से प्रसिद्ध है। बीहड़ जंगल में बने इस धाम में त्रिशूल के आकार का फरसा है। ये तीर्थस्थान ऐतिहासिक होने के साथ-साथ अद्वितीय है, क्योंकि हजारों सालों से खुले आसमान के नीचे होने के बावजूद इस लोहे के फरसे पर आज तक जंग नहीं लगी है। जबकि पानी और हवा के संपर्क में आने से लोहे में जंग लगना एक सामान्य प्रक्रिया है। आइए जानते हैं जंगलों में छोटी सी पहाड़ी पर बसे इस टांगीनाथ धाम का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व।
सुदूर जंगल में बना टांगीनाथ धाम, नक्सल प्रभावित है इलाका
राजधानी रांची से 100 किमी दूरी पर गुमला जिला है, जहां से और 70 किमी आगे जाने पर डुमरी ब्लॉक पड़ता है... यहीं स्थित है टांगीनाथ धाम.. डुमरी तक तो सड़क मार्ग से आसानी से जाया जा सकता है, हालांकि गुमला के बाद ये सिंगल रोड वाला रास्ता है। वहां से आगे 2-3 किमी पक्की सड़क मिलेगी। फिर 5 किमी तक कच्ची सड़क पर चलने के बाद टांगीनाथ धाम पहुंचा जा सकता है, हालांकि 20 साल पहले यहां पक्की सड़क थी, लेकिन अब ये पूरी तरह से बर्बाद हो चुकी है। यहीं साल के जंगलों के बीच पहाड़ी इलाके पर टांगीनाथ धाम है।
माता के वध के बाद परशुराम ने की थी तपस्या
भगवान परशुराम की तपस्या को लेकर कई तरह की लोक कथाएं प्रचलित है। कुछ लोगों का मानना है कि पिता जमदग्नि के कहने पर परशुराम ने अपनी माता रेणुका का सिर धड़ से अलग कर दिया था। फिर पिता से मिले वरदान में उन्हें दोबारा जीवित भी करवाया, लेकिन मातृ हत्या के दोष से मुक्त होने के लिए उन्होंने टांगीनाथ में कठोर तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और दोष मुक्त हुए।
एक कहानी ये भी है कि सीता स्वयंवर में शिवजी का धनुष तोड़ने के कारण परशुराम, भगवान राम से क्रोधित हो गए। उन्होंने राम जी को बुरा-भला कहा। बाद में उन्हें राम के विष्णु अवतार होने का ज्ञान मिला, जिसके बाद आत्मग्लानि में उन्होंने इस पहाड़ी पर अपना फरसा गाड़कर तपस्या की। यहां परशुराम के पदचिन्ह भी मौजूद हैं।
आखिर क्यों फरसे पर नहीं लगी जंग
फरसे में जंग नहीं लगने के रहस्य से पर्दा नहीं उठ पाया है। टांगीनाथ धाम पर रिसर्च कर चुके डॉ. संतोष कुमार भगत कहते हैं, 'ये स्थान झारखंड के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका रखता है। फरसा जमीन से 5 फीट ऊपर तक है। हालांकि ये जमीन में कितनी अंदर तक गड़ा है, ये कहना मुश्किल है। 1984 इसकी खुदाई की गई थी।15 फीट खोदने के बावजूद फरसा का आखिरी हिस्सा नहीं दिखा।
जंग नहीं लगने का कारण स्पष्ट नहीं हो पाया है लेकिन कुछ लोग इसे दैविक कृपा मानते हैं। रिसर्चर संतोष कहते हैं कि इस इलाके का लोहा उन्नत किस्म का होता है। इतिहास में भी जिक्र है कि पहले हथियार बनाने के लिए इस क्षेत्र के लोहे का इस्तेमाल किया जाता था। यहां की असुर जनजाति लोहा पिघलाने का काम करती थी। ये फरसा महरौली के लोह स्तंभ से कम नहीं है।'
108 शिवलिंग सहित कई दुर्लभ प्राचीन मूर्तियां
स्थानीय लोग मानते है कि टांगीनाथ धाम में साक्षात् भगवान शिव का वास है। इस परिसर में एक मुख्य मंदिर है। साथ ही खुले आसमान के नीचे 108 शिवलिंग और कई देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां हैं, जो अपने में दुर्लभ है। शोधकर्ता डॉ. संतोष की मानें तो ये अवशेष चौथी से छठी शताब्दी के हैं। मंदिर की वास्तुकला भी इसी शताब्दी की है, हालांकि कुछ इतिहासकार इसे 12-13वीं शताब्दी का भी मानते हैं।
मुख्य मंदिर में पेड़ के अवशेष की होती है पूजा
टांगीनाथ धाम विकास समिति के कोषाध्यक्ष वीरेंद्र जायसवाल बताते हैं कि इस मुख्य मंदिर में चंदन के पेड़ के अवशेष को शिवलिंग के रूप में पूजते हैं। मान्यता है कि इस स्थल के पुजारी भगवान शिव से साक्षात बात करते थे, लेकिन एक बार किसी ने छिपकर उनकी बातें सुनने की कोशिश की। जिससे क्रोधित होकर महादेव चंदन के एक पेड़ में अंतर्ध्यान हो गए। तब से वहां उस पेड़ के अवशेष की पूजा की जाती है। मंदिर की एक और खासियत ये है कि यहां संस्कृत नहीं बल्कि झारखंड के स्थानीय भाषा नागपुरी में मंत्र पढ़े जाते हैं, पूजा होती है। हर महाशिवरात्रि पर यहां बड़ा मेला भी लगता है।
धाम से 2 किमी दूरी तक लोहार जनजाति के लोग नहीं बसते
झारखंड के कई जनजातियां यहां बसती है, लेकिन लोहार जाति के लोग इस क्षेत्र में नहीं रहते हैं। पौराणिक कहानियों में इस बात का जिक्र है कि लोहार जनजाति के लोगों ने फरसा को चुराने की कोशिश की थी, जिसके बाद उन्हें भगवान का प्रकोप झेलना पड़ा। इसकी दहशत आज भी लोहारों में है।
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