झारखंड के जंगलों में ग्रामीण दोतरफा जंग लड़ रहे हैं एक तरफ नक्सली हैं तो दूसरी ओर जहरीला पानी। मनोहरपुर की चिरिया पंचायत के 8 गांवों में लगभग 6000 ग्रामीण खदानों से निकले गाद से घुला पानी पीने को मजबूर हैं, इसी गाद के कारण छह गांवों के ग्रामीण खेती नहीं कर पाते।
सारंडा जंगल के छोटा नागरा, तेतलीघाट, थोलकोबाद समेत 11 वनग्राम में लगभग 35 हजार आबादी रहती है। इन क्षेत्रों के लोग लाल पानी पीने को मजबूर हैं। झारखंड के जीवनदायी जंगलों में अब जीवन आसान नहीं रहा। जलावन तक वनवासियों को नहीं मिल रहे। भोजन बनाने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है। सारंडा के ग्रामीणों का कहना है कि बच्चों में जन्मजात अपंगता बढ़ी है। कुछ बच्चे जैसे-जैसे बड़े हो रहे हैं उनके पैर टेढ़े हो रहे हैं। उनके अनुसार इसका कारण लाल (दूषित) पानी है।
ऑक्सीजन की मात्रा कमी शुरू हो गई है
वनों की कटाई से जलवायु और जैव विविधता प्रभावित हो रही है। इससे जल और कार्बन चक्र भी बाधित हो रहा है। मिथेन जैसी जहरीली गैसों की मात्रा में वृद्धि हो रही है। जंगलों से मिलने वाली ऑक्सीजन की मात्रा कम होना शुरू हो गई है। जंगल की मिट्टी का कटाव हो रहा है और इससे सिंचाई पर काफी असर पड़ रहा है।
सारंडा में पेड़ों की कटाई से झारखंड के वायुमंडल को नुकसान हो रहा
एक स्टडी के अनुसार देश में साल 2001 से 2020 के बीच 20 लाख हेक्टेयर जमीन पर फैले पेड़ों की कटाई की गई है। 2000 के बाद से लगभग 5% पेड़-पौधे वाली जमीन में कमी आई है। 840 वर्ग किमी में फैले सारंडा में पेड़ों की कटाई से झारखंड के वायुमंडल को नुकसान हो रहा है
अधिकारी और माफिया की मिलीभगत से हो रही पेड़ों की कटाई
सघन जंगलों में पेड़ कटाई का खेल जारी है। सड़क किनारे वाले इलाकों में वनों की कटाई कम है, लेकिन जंगल के अंदर जगह-जगह कटे पेड़ देखने को मिले। लकड़ी माफिया, स्थानीय रंगदार, वन विभाग के कर्मचारियों की मिलीभगत से इन पेड़ों को सुखाकर तस्करी की जा रही है। सारंडा से राऊरकेला व रांची में तस्करी हो रही है।
पश्चिम बंगाल में हो रही है तस्करी
बिसरा वन माफिया का बड़ा केंद्र है। राजमहल-साहिबगंज में पत्थर माफिया वनों की कटाई करा रहे हैं। वन अफसरों, रंगदारों की मदद से लकड़ी पाकुड़ होते हुए पश्चिम बंगाल भेजी जा रही है। बंगाल में लकड़ी का ओपन मार्केट होने से ज्यादा समस्या नहीं होती। वहीं, गोड्डा से लकड़ियां बांका-भागलपुर भेजी जाती हैं।
वन अधिकार कानून का भी लोगों को नहीं मिल रहा लाभ
वन अधिकार कानून 2006 में लागू हुआ, पर झारखंड में अब तक 61,970 लोगों को ही वन पट्टा मिला, जबकि 1,10,756 व्यक्तिगत-सामुदायिक दावे किए गए हैं। 2,57,154 हेक्टेयर जमीन ही वनवासियों को दी गई है। हमारी पड़ताल में पता चला कि दावों का निपटारा करने वाले कल्याण और वन विभाग में समन्वय नहीं है। अधिकारी वन भूमि देने में आनाकानी कर रहे हैं।
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