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बंसी कौल का निधन की खबर सामान्य समाचार नहीं है। यह एक पद्मश्री, संगीत नाटक अकादमी, मप्र शिखर सम्मान प्राप्त शख्सियत का चले जाना कला जगत के लिए बहुत बड़ी क्षती है। बंसी की काया में कितने किरदार, कितने कलाकार, नुमायां थे। कितनी कलाएं, कितनी हिकमतें उनके साथ हर समय सफर करती थीं, इसका विवरण असंभव नहीं तो बेहद कठिन जरूर है। यह कहना था बंसी कौल के मित्र और कला समीक्षक राम प्रकाश त्रिपाठी का।
राम प्रकाश त्रिपाठी ने लिखा 'मैं उन्हें तब से जानता था, जब वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से दिक्षित होकर ग्वालियर आए थे। वे रंगश्री लिटिल बैले ट्रूप के साथ काम करने के संकल्प के साथ जुड़े थे। रंग तापसी गुल बर्धन के समर्पण और त्याग से प्रभावित होकर वे आए थे। उनके सामने माया नगरी का रुपहला इंद्रजाल था, लेकिन उन्हें तो रंगमंच का जुनून था, वरना दिल्ली में बहुत संभावनाएं थी, बहुत पैसा था। लेकिन ये आकर्षण उन्हें बांध नहीं पाए! कुछ लोगों को उपवन की बंदिशें रास नहीं आतीं। वन के फूलों की खिलन रुचती है। बंसी उन्हीं में से एक थे। उनकी पत्नी अंजना पुरी उस दौर में ग्वालियर के सिंधिया कन्या विद्यालय में पढ़ती थीं। वहीं, कोरियोग्राफर गुलबर्धन उन्हें उनके गाढ़े रंग के कारण कजरी कह कर पुकारती थीं।
रंग विदूषक की नींव एलबीटी के अंदर ही रखी गई। कालान्तर में जब संस्था भोपाल आई तो बंसी भी आए। एलबीटी का रूपांतरण जब ट्रस्ट में हुआ तो गुल की सलाह मानकर बंसी ने 'रंगविदूषक' का प्रथक से ट्रस्ट बनाया।
बंसी की जीवन यात्रा बहुत बेढब, बीहड़ और भटकन भरी थी, लेकिन नवाचारी रही। अपना रंग मुहावरा उन्होंने लोक में तलाशा। तलछट के लोगों में ढूंढा। कम लोग जानते हैं कि नटों की तलाश में बंसी कहां-कहां नहीं भटके। नटों को खोजा, उन पर काम किया। मालवा, राजस्थान, बुंदेलखंड के अखाड़ों पर काम किया। उनसे सीखा, उन्हें सिखाया।
बंसी का नया रंग रसायन यहां से ही निकला और संस्कृत युग के विदूषकों की अवधारणा को साथ मिलाकर बंसी की विदूषक शैली परवान चढ़ी। भोपाल के गांधी भवन में महीनों अभ्यास करके मध्यप्रदेशीय मार्शल आर्ट का नया अध्याय इस तरह शुरू हुआ। जिसका पूर्ण परिपाक राजेश जोशी लिखित और बंसी कौल द्वारा निर्देशित तुक्के पर तुक्का नाटक में फलित हुआ। इसके सौ से ज्यादा प्रदर्शन देश विदेश में हो चुके हैं। भोपाली भाषा के इस नाटक ने विश्व रंगमंच पर उसी तरह का प्रवाह छोड़ा जैसा हबीब तनवीर के छत्तीसगढ़ी के नाटकों ने छोड़ा था।
हालांकि, बंसी की ख्याति आला अफसर और महाराजा अग्नि वरण के पैर जैसे नाटकों में हो चुकी थी। कहानी के रंगमंच को वे नई ढब से विन्यस्त कर चुके थे। कीर्ति लब्धता के बाबजूद उनका संतोष लोक में बसता रहा। कहन कबीर लोक रंग में रची पगी संरचना है। जिसका अद्भुत संगीत अंजना पुरी ने सिरजा है। अंजना रंग संगीत के लिए संगीत नाटक अकादमी अवार्ड प्राप्त कर चुकी है।
बंसी कौल ने भारत रंग महोत्सव रूस (मास्को) में, एशियाड भारत (दिल्ली) और बंग्लादेश जैसे आयोजनों का संयोजन और दृश्य निरूपण किया। कोरियोग्राफ किया। इससे याद आया कि उन्होंने रंगश्री लिटिल बैलै ट्रूप के लिए "आकारों की यात्रा" नामक बैले की परिकल्पना, निर्देशन और कोरियोग्राफ किया। यहां भोपाल गैस कांड पर आधारित बैलै "मेमोरी ऑफ सैडनेस (अतीत की स्मृतियां) को श्रुति कीर्ति के निर्देशन में तैयार करवाया था। इसकी पृष्ठभूमि में भोपाल गैस कांड में बंसी की स्वयं सेवा और भोपाल के दंगों में उनका डिजाइन किया ऐतिहासिक शांति जुलूस भी था। जिसने एक झटके में भोपाल की फिजा बदल दी थी। इस जुलूस का प्रसारण भोपाल रेडियो स्टेशन में किया था।
बंसी द्वारा स्थापित रंगविदूषक संभवतः ऐसा रंग संस्थान है जिसने झुग्गी बस्तियों के बच्चों को रंग दीक्षित किया। इतना ही नहीं सर्वाधिक रंग निर्देशक भी रंग विदूषक ने दिए। हर निर्देशन का श्रेय लेने का लोभ बंसी ने कभी पाला ही नहीं। रंगविदूषक से निकले बच्चों ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से लेकर सीरियलों-फिल्मों में भी अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराई है।
उपलब्धियों का खाता बड़ा है। मुख्तसर बयान संभव नहीं। पर रंग जगत में जितना शोक व्याप्त है वह उनकी अपूरणीय क्षति को ही पुष्ट कर रहा है। मैं अपनी स्मरणांजलि का समापन अपने एक मामूली मगर मानवीय अनुभव के साथ करूंगा।
मैं बंसी का मेहमान था। दिनभर दिल्ली में साथ घूमा। शाम को गाड़ी एक जूतों के शो रूम पर रुकी। बंसी ने जबरदस्ती एक कीमती जूता जोड़ी मुझे दिला दी। उम्र में बंसी छोटे थे पर अपनी पर आते तो बड़े भाई का चोला ओढ़ लेते। इस हरकत पर मैंने एतराज जताया तो वे बोले मेरे नंगे पावों ने कश्मीरी बर्फ के शूल सहे हैं। तब से मुझमें अच्छे जूतों के लिए काम्पलेक्स है। बर्फीले शूलों के गुरबत के दिनों के अनुभव बताते हुए उनकी वाचाल, बड़ी, सुंदर और चंचल आंखों में आंसू थे और यह याद करते हुए मेरी आंखें नम हैं।'
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