दुनियाभर में अंतरर्राष्ट्रीय मदर्स डे पर मां के संघर्ष को याद किया जा रहा है। मई महीने के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाता है। खास तौर से मां के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर उनके द्वारा दिये गए अथाह प्यार और स्नेह के लिए धन्यवाद देने के लिए यह दिन तय किया गया है। मां के कई रूप हैं और उसमें धैर्य है, प्यार है और इतनी फिक्र है कि उसका कर्ज उतारना मुश्किल है। मदर्स डे पर पढ़िए ऐसा ही एक किस्सा जो एक मां के संघर्ष को बयां करता है, जिसने अपने बच्चे को IES बनाया...
"मेरा नाम लता श्रीवास्तव है। सागर जिले में जन्मी और वहीं पली-बढ़ी। डॉ. हरिसिंह गौर विश्विद्यालय से पढ़ाई की। कुछ समय तक वहीं नौकरी भी की। शादी हुई तो ब्याह के बाद अशोकनगर आई। पति की नौकरी और मेरा तबादला गुना हुआ, तो फिर यहीं सेटल हो गए। शुरुआती समय अच्छे से गुजरा। दो बच्चे हुए। एक बेटी और उससे छोटा बेटा। हंसी-खुशी जीवन कट रहा था। वर्ष 2006 में अचानक पति का बीमारी के चलते निधन हो गया। लगा- जैसे अचानक जीवन में एकाएक खालीपन आ गया। मुझे याद है कि जिस दिन वे नहीं रहे, उस दिन बारिश हो रही थी। बच्चे स्कूल गए थे। पूरी कॉलोनी में कोई घर के बाहर नहीं था। चिल्लाती, आवाज देती किसी को पुकार रही थी, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं था। बाद में परिवार वाले और रिश्तेदार पहुंचे।
यहीं से जिंदगी का संघर्ष शुरू हुआ। बच्चों की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ गयी। नौकरी गुना के बमोरी इलाके में थी। इतनी दूर बस से रोजाना आना-जाना करना पड़ता। एक तरफ का सफर करने में लगभग 3 घंटे लगते। इस तरह 6 घंटे तो केवल सफर में गुजर जाते। फिर वहां काम। जब उनकी मृत्यु हुई, तब बेटा कक्षा 6 और बेटी कक्षा 9 में थी। 24 घंटों में से 12 घंटे तो स्कूल आने-जाने और वहां काम करने में लग जाते। बाकी समय घर का काम, बच्चों का ध्यान रखना, उनकी पढ़ाई और उन्हें संस्कार देने में व्यतीत होता। ऊपर से बीमारी अलग।
सुबह 5 बजे उठकर मैं मॉर्निंग वॉक पर जाती। वहां से आकर बच्चों को उठाना, स्कूल के लिए तैयार करना, खाना बनाना और उन्हें स्कूल भेजने के बाद खुद की नौकरी पर जाने की तैयारी। वापस आने में शाम हो जाती। लौटने पर फिर बच्चों को होमवर्क कराना, दिन भर स्कूल में जो हुआ उसकी जानकारी लेने सहित घर के काम भी करती। बच्चे जब बाहर पड़ने गए तो चिंता और बढ़ गई। हमेशा चिंता लगी रहती कि बच्चे ठीक से रह रहे होंगे या नहीं, खाना टाइम से मिल रहा होगा या नहीं।
जब तक बच्चे घर पर नहीं आ जाते, तब तक मैं भी नहीं सोती थी। कई बार उन्हें फोन कर पूछती की क्या कर रहे हो, कहां हो। हमेशा यही चिंता रहती की बच्चों को अच्छे संस्कार दे पाऊं। दोनों अच्छे मुकाम पर पहुंच जाएं। यही कोशिश रहती थी कि बच्चों को कभी ऐसा महसूस न हो कि उनके लिए मैं कुछ कम कर रही हूं। कई बार लगता था कि विल पावर कम हो रहा है, लेकिन फिर खुद को मजबूत कर वापस यही सोचते कि हम कर लेंगे, आगे बढ़ेंगे। इसी सोच के साथ बच्चों के लिए करती रहती थी।"
बेटा IES और बेटी इंजीनियर
उनके दोनों बच्चे अच्छे मुकाम पर हैं। बेटे हिमानिल श्रीवास्तव का चयन IES में हो गया है। पिछले महीने आए परिणाम में उसका चयन हुआ। कुछ दिनों में ही मेडिकल होने के बाद ट्रेनिंग शुरू हो जाएगी। बेटी ने भी इंजीनियरिंग की है। वर्तमान में TCS में इंदौर में पदस्थ हैं। वह बिजनेस एनालिस्ट के तौर पर काम कर रही हैं।
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