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नर्मदा जयंती मनाना 1975 में शुरू हुआ। पहली बार सेठानी घाट की सीढ़ियाें पर बैठकर पूजन अभिषेक किया गया। संत राधे बाबा की प्रेरणा से स्व. ज्ञानी मस्ते ने माेरछली चाैक स्थित नर्मदा मंदिर में नर्मदा पुराण और नर्मदा जयंती उत्सव शुरू किया।
नर्मदा जयंती पर माेरछली चाैक से सेठानी घाट तक हाथ ठेले पर शाेभायात्रा निकाली जाती थी, जाे परंपरा आज भी जारी है। 5 साल तक घाट पर बैठकर नर्मदा जयंती का पूजन किया गया। 1980 में संत राधे बाबा ने जलमंच बनाने का सुझाव दिया ताकि पीछे बैठे श्रद्धालुओं काे पूजा अर्चना दिख सके।
इसके बाद 1980 में सबसे पहले दाे नावाें काे जाेड़कर सेठानी घाट पर जलमंच बनाया गया। मंच पर 25-30 लाेग बैठ पाते थे। 1980 से 2010 तक करीब 30 साल तक नाव काे बांधकर जलमंच बनाया जाता रहा।राधे बाबा, पंडित अश्वनि कुमार दिवाेलिया, प्रीतम प्रसाद साेनी, विमल वर्मा के प्रयासाें से शुरू हुआ नर्मदा जयंती महाेत्सव आज शहर की पहचान बन गया है।
पहले नर्मदा में नहीं किया जाता था दीपदान बल्कि घाट की सीढ़ियाें पर ही जलाए जाते थे दीपक
नर्मदा नदी पर जलमंच की शुरुआत 1980 में हुई थी। 4 बड़ी नाव काे रस्सी से जाेड़कर नर्मदा में जलमंच बनाया गया। नर्मदा के बहाव में मंच हिले नहीं इसलिए रेत से भरी बाेरियाें काे नाव से रस्सी बांधकर नदी में डाल देते थे। नाव के अंदर सेंटिंग के पटियाें से मंच बनता था। नाव के जलमंच पर 25 से 30 लाेग बैठ जाते थे।
अतिथि छाेटे डाेंगे से मंच तक पहुंचते थे। नर्मदा घाटाें काे दीप लगाकर सजाते थे। उस समय नदी में दीपदान नहीं किया जाता था बल्कि घाट की सीढ़ियाें पर ही दीपक जलाकर घाट सजाया जाता था। 2010 से जेटिस जलमंच बनने लगा। इस पर 100 लाेग बैठ सकते हैं।
- जैसा कि फोटोग्राफर राेहित थुद्गर ने बताया
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