आबकारी विभाग का चौंकाने वाला मामला सामने आया है। इंदौर में पदस्थ आबकारी निरीक्षक नरेंद्र अवस्थी की वेतनवृद्धि केवल इसलिए रोक दी गई थी कि एक साल तो उन्होंने अवैध शराब पकड़ने के 48 केस बनाए, लेकिन दूसरे साल महज 8 केस ही बन पाए। इस पर विभाग ने वेतनवृद्धि रोकते हुए कहा कि आपने काम में लापरवाही की, इसलिए वेतनवृद्धि रोकी जाती है। इस वजह से अवस्थी को प्रमोशन भी नहीं मिल पाया। इस कार्रवाई को हाई कोर्ट में चुनौती दी तो कोर्ट ने नाराजगी जाहिर की।
जस्टिस विवेक रुसिया ने अवस्थी की याचिका मंजूर करते हुए कहा कि ऐसा लगता है जैसे जबरन टारगेट देकर अवैध शराब के केस बनाए जा रहे हैं। यह पूरी तरह गलत है। इस तरह के मामलों से ही कोर्ट का समय खराब होता है और बेमतलब की मुकदमेबाजी हो रही है। हाई कोर्ट ने निरीक्षक को वेतनवृद्धि का लाभ देने और बाकी की जुड़ी सुविधाएं पर भी फिर से विचार करने के आदेश दिए हैं।
सहकर्मियों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई
याचिकाकर्ता अवस्थी ने वर्ष 2007 में 48 केस बनाए थे। इसका असर यह हुआ कि अवैध शराब बिक्री के मामले रुक गए थे। इस वजह से अगले साल यानी 2008 में केवल 8 ही केस बने थे। कम केस बनने पर ही उन्हें वेतन बढ़ने का लाभ नहीं मिला। जबकि उनके सहकर्मियों के द्वारा भी कम केस बनाए गए, लेकिन उन पर कार्रवाई नहीं हुई। अवस्थी ने याचिका में उल्लेख किया कि भले 2008 में कम केस बने, लेकिन शराब बनाने वाली फैक्टरी के खिलाफ 58 केस बनाए, जिससे सरकार को काफी राजस्व का फायदा हुआ।
अवैध शराब बिक्री के मामले में 2007 में सख्ती की थी, जिसकी वजह से 2008 में मामले इतने सामने नहीं आए। हाई कोर्ट आने से पहले विभाग में अपनी बात रखी, लेकिन आबकारी आयुक्त ने अर्जी खारिज कर दी थी। हाई कोर्ट ने सुनवाई के बाद विभाग की इस तरह की कार्रवाई पर गहरी नाराजगी जाहिर की।
इसीलिए लंबित मामले बढ़ रहे
हाई कोर्ट में 70 फीसदी मामले विभिन्न विभागों के द्वारा इसी तरह की कार्रवाई की वजह से लंबित हैं। वेतनवृद्धि, प्रमोशन, पेंशन की गणना में देरी, क्रमोन्नति नहीं दिया जाना प्रमुख है। हाई कोर्ट की सिंगल बेंच के द्वारा आदेश पारित करने के बाद सरकार उस पर अमल नहीं करती, बल्कि उस फैसले की अपील कर देती है, जिसकी वजह से निराकरण में और लंबा समय लगता है, जबकि हाई कोर्ट कई फैसलों में कह चुका है कि छोटे-छोटे मामलों में अपील पेश नहीं की जाए। इससे सभी का समय और पैसा व्यर्थ जाता है।
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