आज अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर हम इंदौर की उस शख्सियत के बारे में आप को बताने जा रहे हैं, जिन्होंने 100 साल से भी अधिक पहले एक ऐसा स्टार्टअप शुरू किया था, जिसके कारण इंदौर का नाम पूरे देश ही नहीं विदेशों में भी रोशन हुआ। जी हां, हम बात कर रहे है इंदौर सर सेठ हुकुमचंद कासलीवाल (जैन) की जिन्होंने इंदौर में कपड़ा मिलों की शुरुआत की और देश के हजारों नहीं लाखों मजदूरों को रोजगार दिया था।
एक समय इंदौर का नाम इंग्लैंड के बाजारों में भी जाना जाता था। हालांकि मिलों के बंद होने के बाद आज हजारों मजदूर दो जून की रोटी के लिए भटक रहे हैं। सालों पहले जिन सेठ हुकुमचंद ने इन मिलों की शुरुआत की थी। उनके नाम का डंका इंदौर से लेकर लन्दन स्टॉक एक्सचेंज तक बजता था। उनकी आलीशान हवेली आज भी उनके गौरव की कहानी कहती है। मजदूर दिवस पर लाखों मजदूरों को रोजगार देने वाले सेठ हुकुमचंद के जीवन के बारे में हम आपको बताते हैं...
इंदौर के सेठ हुकुमचंद का नाम भारत की पहली पीढ़ी के उद्योगपतियों में लिया जाता है। उन्होंने सन् 1917 में कोलकाता में देश की पहली भारतीय जूट मिल की स्थापना की थी। कोलकाता में उनकी एक स्टील मिल भी थी। इसके अलावा उन्होंने इंदौर में तीन टेक्सटाइल मिल्स (राजकुमार, कल्याणमल और हुकुमचंद मिल) की स्थापना की। इंदौर की हुकुमचंद मिल उस जमाने की सबसे आधुनिक टेक्सटाइल मिल थी। उज्जैन में भी उनकी एक टेक्सटाइल मिल थी। इसके अलावा इंदौर,खंडवा, सेंधवा और भीकनगांव में जीनिंग और प्रोसेसिंग यूनिट्स भी थी।
आज भी हुकुमचंद सेठ के महल में रहती है चौथी पीढ़ी
उनका पैलेस किसी राजा महाराजा की तरह था। इसके भीतर सोने की नक्काशी की गई है। उनके वंशज आज भी यहीं रहते हैं। उनके परिवार के धीरेन्द्र कासलीवाल ने बताया कि मूल फर्म सेठ हुकुमचंद सरूपचंद प्राइवेट लिमिटेड अभी भी कायम है। उनके रसूख का आलम ये था कि लंदन स्टॉक एक्सचेंज के दलालों को जब ये पता चलता था कि वे किसी कंपनी के शेयर खरीद रहें हैं, तो उस कंपनी के शेयर के भाव आसमान छूने लगते थे।
तत्कालीन होलकर राजा के कहने पर उन्होंने अंग्रेजों को करोड़ों रुपए का बिना ब्याज का कर्ज दिया था। इसके चलते अंग्रेजों ने उन्हें सर और महाराजा होलकर ने राजा राव की उपाधि से सम्मानित किया था। उनके वंशज बताते हैं कि इंदौर का कस्तूरबाग्राम, नसिया धर्मशाला, प्रेमदेवी अस्पताल, कांच मंदिर और दिल्ली के लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज सहित देश भर में 200 से ज्यादा स्कूल, कॉलेज, मंदिर, धर्मशाला, अस्पताल और हॉस्टल बनाने के लिए उन्होंने दान किया था। उनके वंशज सीके कासलीवाल और प्रवीण कासलीवाल बताते हैं कि एक आंकलन के अनुसार 1950 तक उन्होंने करीब 80 लाख रुपए का दान किया था।
महात्मा गांधी भी आए थे भोजन करने
गांधीजी 1935 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के लिए इंदौर आए थे, तब सेठ हुकुमचंद ने उन्हें भोजन के लिए आमंत्रित किया था। मेहमानों को चांदी की थाली में भोजन परोसा गया, लेकिन गांधीजी को सोने की थाली में, इस पर बापू ने ऐतराज जताया था। सेठ हुकुमचंद ने बहुत आग्रह किया तो बापू बोले कि मैं तो अपने बर्तनों में खाता हूं या जिन बर्तनों में खाता हूं, उन्हें अपने साथ ले जाता हूं। बताओ क्या करूं? सेठजी उनका आशय समझ गए और उन्हें सोने की थाली में खाने का आग्रह किया। गांधीजी ने खाने के बाद खुद थाली साफ की और झोले में रख ली। इस थाली को बेचने से जितना भी पैसा आया, वह उन्होंने वर्धा की हिंदी समिति के निर्माण के लिए दान कर दिया।
न्यूयॉर्क कॉटन एक्सचेंज भी उनकी मृत्यु पर दो दिन के लिए बंद हुआ था
सेठ हुकुमचन्द को भारत के कॉटन प्रिंस के रूप में जाना जाता है। उनका जन्म 1874 में सेठ पुसाजी के परिवार में हुआ था, जिन्होंने इंदौर में होलकर वंश की स्थापना का समर्थन किया था। सेठ हुकुमचंद का एक व्यापारी के रूप में काफी सम्मान किया जाता है। न्यूयॉर्क कॉटन एक्सचेंज को भी उनकी मृत्यु पर दो दिन के लिए बंद कर दिया गया था। स्वदेशी उद्योग के अन्वेषक सेठ हुकमचन्द ने भारत में अनेक कॉटन मिल्स की स्थापना की। जैसे हुकुम चंद मिल नामक एक विशाल जूट मिल और राजकुमार मिल नामक एक आयरन मिल। वे एक उत्तम मार्गदर्शक थे और अपनी व्यवहार कुशलता और अपने व्यापार कौशल के साथ, उन्होंने अपनी विरासत को कई गुना कर दिया और एक प्रभावशाली व्यक्ति बन गए।
1919 की गाड़ी गोल्ड डैमलर
सेठ हुकुमचंद के पास 1919 की गोल्ड डैमलर कार थी। हुकमचंद मिल इंदौर की उस जमाने की सबसे आधुनिक और सबसे बड़ी टेक्सटाइल मिल थी। इसकी स्थापना 21 करोड़ रुपए की पूंजी के साथ 1915 में सर सेठ हुकमचंद ने की थी।
80 के दशक में बिगड़ी हालत
80 के दशक में मिल की हालत बिगड़ी और धीरे-धीरे बंद हो गई। 12 दिसंबर 1991 को हुकमचंद मिल प्रबंधन ने अचानक मिल बंद करने का निर्णय लेते हुए इस पर ताला लगा दिया। इसके बाद से मिल के 5,895 मजदूर बकाया भुगतान के लिए भटक रहे हैं। इनमें से 2200 से ज्यादा की मौत भी हो चुकी है। सालों पहले हाईकोर्ट ने मिल की जमीन बेचकर मजदूरों का भुगतान करने का आदेश दिया था, लेकिन बार-बार नीलामी निकालने के बावजूद मिल की जमीन बिक नहीं सकी।
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