इंदौर... अपनी ताकत से लगातार बढ़ने वाला शहर। इंदूर से इंदौर बनने का सफर जितना लंबा है, उतना ही जीवट भी। यहां कभी हाथियों पर कपड़ा बनाने की मशीनें लाई गई थीं। 18वीं शताब्दी में भी इंदौर व्यापार का केंद्र था और आज भी है। यहां इंडस्ट्री या बिजनेस शुरू करने के लिए जमीन से लेकर मैनपॉवर और मार्केट सबकुछ है। और ये ही यहां की लाइफ लाइन है।
IIT और IIM ने इस शहर को एजुकेशन हब के रूप में नई पहचान दी है। लगातार सबसे स्वच्छ शहर का तमगा आम इंदौरी की जिद का ही परिणाम है। रविवार से शुरू हो रहे प्रवासी भारतीय सम्मेलन में दुनियाभर से आ रहे मेहमान इस शहर की ताकत और खासियत से रुबरू होंगे।
आइए जानते हैं कैसे इंदूर साल दर साल इंदौर बना…
【 तब 】1732 : मल्हार राव होलकर ने अपना शासन शुरू किया
ये वो दौर था, जब बाजीराव पेशवा प्रथम की तलवार का बोलबाला था। उनके साथ युवा सेनानायक मल्हारराव होलकर कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रहे थे। मल्हारराव ने कई दिनों तक जान की बाजी लगाकर पेशवा की सेवा की थी। पेशवा ने अपने सेनानायक की स्वामी भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें मध्यभारत की जागीर शासन करने के लिए दी थी। यह जागीर इंदूर थी जो आज का इंदौर है। 1732 में इंदौर में होलकर राजवंश के संस्थापक मल्हार राव होलकर ने अपना शासन शुरू किया था। कुछ पुस्तकों में इसका अलग उल्लेख भी है।
【 अब 】 इंदौर के पंढरीनाथ इलाके में आज भी इंद्रेश्वर मंदिर (1741) है। जिला प्रशासन के अनुसार इस मंदिर के कारण ही पहले इंदूर और बाद में इंदौर नाम दिया गया था। खान (कान्ह) नदी के तट पर बनी कृष्णापुरा छत्रियां, होलकर शासकों को समर्पित हैं। यह कान्ह नदी बेहद प्रदूषित हो गई थी, जिसे स्वच्छ भारत अभियान के तहत पुन: साफ कर नया स्वरूप दिया गया है।
【 तब 】1767 : पति को सरकारी खजाने से एडवांस वेतन देने से कर दिया था इनकार
20 मई 1766 को मल्हार राव का निधन हुआ, इसके बाद राजपाट अहिल्या देवी होल्कर के सुपुत्र माले राव होलकर को सौंपा गया। वह केवल 9 माह तक राज कर पाए और उनकी मृत्यु हो गई। इसके बाद राज्य का सारा भार अहिल्या देवी पर आ गया। उन्होंने 13 मार्च 1767 में रियासत की कमान अपने हाथों में ली। उनका शासनकाल करीब 28 बरस का था। अहिल्या बेहद मृदुभाषी थीं, लेकिन राजपाट के नियमों में उतनी ही सख्त थीं। नियमों के पालन में उन्होंने कभी अपने बेटे या पति को भी छूट नहीं दी थी। वे जनता की गाढ़ी कमाई बचाने के लिए एक-एक आने का हिसाब रखती थीं। एक बार तो उन्होंने अपने पति को भी सरकारी खजाने से एडवांस वेतन देने से इनकार कर दिया था।
【 अब 】देवी अहिल्या आज भी इंदौर की यादों में जीवित हैं। यूनिवर्सिटी, एयरपोर्ट आज देवी अहिल्या के नाम पर ही हैं। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा देवी अहिल्या सम्मान दिया जा रहा है। यह सम्मान पिछले 26 साल से दिया जा रहा है।
【 तब 】1841 : पश्चिम देशों की तरह अंग्रेजी का स्कूल खोला गया
होलकर राज्य और इंदौर में पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था पर आधारित पहला विद्यालय महाराजा हरिराव होलकर के शासनकाल में 6 जून 1841 में खोला गया था। इसके पहले बैच में 45 छात्र थे। यहां अंग्रेजी, फारसी और हिंदी पढ़ाई जाती थी। अप्रैल 1843 को यह विद्यालय रेसीडेंसी परिसर से हटाकर कान्ह नदी के तट पर कृष्णपुरा स्थित धर्मशाला में लगाया जाने लगा। उस समय पुल नहीं बना था। बच्चों को राजबाड़े की ओर से नदी पार कर नए स्कूल पहुंचना होता था। बंबई से गणपत राव को अंग्रेजी पढ़ाने बुलाया गया था। यह स्कूल आज भी है और अब इसका नाम महाराजा शिवाजी राव हाई स्कूल है। अब इसे मप्र सरकारी चलाती है।
【 अब 】एक रिपोर्ट के मुताबिक, हायर एजुकेश का हब इंदौर बन गया है। यहां 400 कोर्स कॉलेजों में पढ़ाए जाने लगे हैं, इनमें भी 120 कोर्सेस ऐसे हैं जो पूरे देश में सिर्फ यहीं पढ़ाए जा रहे हैं। दो हजार स्कूलों के अलावा 200 सरकारी, प्राइवेट कॉलेज और 10 यूनिवर्सिटीज हैं। 3 लाख से ज्यादा स्टूडेंट्स इनमें पढ़ते हैं।
【 तब 】1766 : तब चार लाख रुपए में ही बन गया था ये राजमहल
राजबाड़ा इंदौर की पहचान है। यह देश का एक मात्र राजमहल है, जिसका दरवाजा सात मंजिल ऊंचा है। पुस्तकों में इसके बनने की तारीख अलग है। फिर भी इसका निर्माण 1766 से माना गया है। यह इंदौर शहर के बीचों बीच है। आज भी इंडिया कोई क्रिकेट मैच जीतता है तो इंदौरी लोग राजबाड़ा पर इकट्ठा होकर जश्न मनाते हैं। यह सात मंजिला महल 4 लाख रुपए में बनवाया गया था। इसकी लंबाई 318 फीट और चौड़ाई 232 फीट है।
होलकर रियासत के संस्थापक मल्हार राव होलकर ने अपने अंतिम दिनों में राजबाड़ा बनवाने की शुरुआत की। इसे बनवाने का श्रेय मल्हार राव होलकर द्वितीय को जाता है। राजबाड़ा में तीन बार 1801, 1908 और 1984 में आग लगी है। महाराजा यशवंत राव होलकर ने उज्जैन पर आक्रमण किया था। जवाबी हमले में सरजे राव घाटगे ने इंदौर पर आक्रमण किया और इंदौर को लूटा। राजबाड़ा की ऊपरी दो-तीन मंजिलों में आग लगाई। होलकर रियासत के दीवान तात्या जोग ने 1811 में एक बार फिर इसका निर्माण कराया। इसके बाद 1908 में राजबाड़ा की लेफ्ट विंग में आग लगी और फिर 1984 के दंगों में राजबाड़ा को सर्वाधिक क्षति पहुंची। दो शीश महल जलकर खाक हो गए।
【 अब 】राजबाड़ा धरोहर से बढ़कर अब इंदौर के बाजार की भी पहचान बन गया है। खान पान के शौकीन हो या किताबों के। रंगपंचमी की गेर हो या वर्ल्ड कप जीतने का जश्न, राजबाड़ा पर झूमे बगैर इंदौर की खुशियां अधूरी मानी जाती हैं।
【 तब 】1867: खंडवा तक रेल से आई थीं मशीनें
ढाई दशक पहले तक इंदौर अपनी कपड़ा मिल के लिए पूरी दुनिया में मशहूर था। इसका श्रेय होलकरों को ही जाता है। महाराजा तुकोजीराव होलकर द्वितीय ने इंदौर में कपड़ा मिल करने का निर्णय लिया। अंग्रेज इसके लिए सहमत नहीं थे, बाद में सहमति इस शर्त पर दी कि भारत सरकार (अंग्रेजी शासन) 3 यूरोपीय व्यक्तियों की सेवाएं मिल में लें। एमपी में कुल 16 मिलें खुलीं। बताया जाता है तब इसकी मशीनें हाथियों पर लदकर आई थीं। 1867 में इंग्लैंड से ये मशीनें जलमार्ग से मुंबई बुलवाई गईं, लेकिन इसे मुंबई में जब्त कर लिया गया। कपड़ा मिलों का निर्माण रोकने के लिए होलकर राजा के विरुद्ध मुंबई हाईकोर्ट में एक डिक्री लाई गई। इस कानूनी अड़चन के बाद मशीनें रेलमार्ग से खंडवा लाई गईं और वहां से हाथियों पर लादकर इंदौर लाया गया था।
【 अब 】भले ही मिल बंद हो गई हों, लेकिन इन मिलों ने इंदौर को कपड़े के व्यापार का हब बनाया है। आज भी कपड़े के व्यापार में इंदौर अव्वल है।
【 तब 】1933 : पहला महल, जिसमें सारे ऐशो आराम की चीजें थीं
जर्मन आर्किटेक्ट एकर्ट मुथैसियस से 1909 में बने माणिकबाग पैलेस को रीडिजाइन किया। 4 दिसंबर 1933 में तैयार हुए इस महल में वह सारी विलासिता थीं, जिसकी कल्पना भी उस वक्त भारत में किसी ने न की होगी। इलीन ग्रे, लुई स्कॉट और एमिली जैसे मशहूर आर्किटेक्ट्स ने इसे रीडिजाइन किया था। पूरा महल एयर कंडीशंड था। हाइड्रोलिक डोर, मशीन्ड मार्बल, सुंदर कालीन, झाड़ फानूस, बाथरूम में स्टाइलिश फॉसेट... यह सब महल में था। 1976 में राज परिवारों का कॉन्सेप्ट खत्म हो गया और होलकर परिवार को अपना महल सरकार को सौंपना पड़ा। फिर भी इस महल की तकरीबन 50 नायाब चीजें यूरोप पहुंचा दी गईं, जहां इन्हें म्यूजियम में संजोया गया।
【 तब अब 】पेरिस म्यूजियम में यशवंत राव होलकर और महारानी संयोगितादेवी की बड़ी-बड़ी तस्वीरें और इंदौर स्थित माणिकबाग महल के लिए बनवाई गई बेशकीमती चीजों की प्रदर्शनी 'द मॉडर्न महाराजा' भी लग चुकी है। म्यूजियम में एक सेक्शन इंदौर के इसी राजा की तस्वीरों को दिया गया है।
【 तब 】1956 : पंडित नेहरू भी देखकर चौक गए थे, चार साल में इतना बड़ा अस्पताल बना दिया
महाराजा यशवंत राव अस्पताल का शिलान्यास 6 जून 1948 में हुआ और 23 अक्टूबर 1956 में इसका उद्घाटन हुआ था। इसके बनने के पीछे की कहानी लोग बताते हैं कि महाराजा यशवंतराव होलकर द्वितीय एक बार बहुत बीमार हाे गए थे। डॉक्टर ने प्राथमिक उपचार के बाद उन्हें अमेरिका जाकर ऑपरेशन करवाने की सलाह दी।
महाराजा यशवंतराव अमेरिका गए और इलाज करवाया। इसमें बहुत सारा खर्च आया। तब महाराजा ने सोचा कि मेरा पास रुपया है तो मैं इलाज कराने यहां आ गया। अगर मेरे शहर का गरीब मेरे जितना बीमार हुआ तो वो इलाज कराने कहां जाएगा। इसके बाद महाराज ने अस्पताल बनवाने की सोची। देश आजाद हो चुका था इंदौर में एशिया के सबसे बड़े अस्पताल को बनाने की बात चल रही थी। महाराज यशवंत राव ने सरकार के सामने प्रस्ताव रखा कि वे 35 लाख रुपया देंगे, लेकिन अस्पताल का नाम उनके नाम से होगा। सरकार तैयार हो गई और विदेश से आर्किटेक्ट और इंजीनियर बुलाए गए। जब प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इसका उद्घाटन किया तो उन्हें भी विश्वास नहीं हुआ कि चार साल में इतना बड़ा अस्पताल बन सकता है। आज भी यह देश के सबसे बड़े अस्पतालों में शुमार है।
【 अब 】यह मध्यप्रदेश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल का स्वरूप ले चुका है। एमजीएम मेडिकल कॉलेज भी इसी में शामिल है और यहां 495 सीटें हैं। संभवत: मध्यप्रदेश का इकलौता कॉलेज है, जहां पीजी और एमबीबीसी की बराबर सीटें हैं। इनके अलावा दो और मेडिकल कॉलेज सहित 20 नर्सिंग कॉलेज हैं। तीन हजार डॉक्टर्स सेवाएं दे रहे हैं।
【 तब 】1970 : पक्ष-विपक्ष सब नेता, अमीर-गरीब ने किया था आंदोलन
5 जुलाई से 23 अगस्त 1970 तक इंदौर में नर्मदा को लाने के लिए 49 दिन आंदोलन चला था। यह देश के उन चुनिंदा आंदोलन में से एक था, जिसमें हर उम्र के लोगों ने भाग लिया था, लेकिन कोई हिंसा नहीं हुई। तब शहर के कई बुद्धिजीवियों और नेताओं ने पार्टियों की सीमाओं से परे जाकर इंदौर के लिए एकजुटता दिखाई थी।
जिस जगह जलूद से अभी पानी आता है, उसकी खोज इंजीनियर वीजी आप्टे ने एक माह से अधिक समय नर्मदा किनारे रहकर की थी। 1966 से ही शहर में गर्मियों के दिनों में पानी का संकट जबरदस्त बढ़ जाता था। लोग परेशान हो रहे थे। साल दर साल लोगों का सब्र जवाब दे रहा था अंतत: 14 जून 1970 को राजबाड़ा के गणेश हॉल में बुद्धिजीवी, छात्र और नेताओं ने एक मीटिंग की। इसमें तय किया गया कि नर्मदा को लाने की लड़ाई मिलकर लड़ेंगे।
5 जुलाई को शहर के हर चौराहे पर लोगों की टोलियां नर्मदा लाने के लिए प्रदर्शन कर रही थीं। इंदौर की दीवारें नर्मदा लाने की मांग वाले नारों से भरी पड़ी थीं। तब मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल थे। मुख्यमंत्री ने दामाद वाली विनम्रता दिखाकर अपने ससुरालियों की मांग मंजूर कर ली। श्यामाचरण शुक्ल का विवाह वैद्य ख्यालीराम द्विवेदी की बेटी पद्मिनी से हुआ था। इस कारण से श्यामाचरण शुक्ल को इंदौर का दामाद भी कहा जाता है। नर्मदा को जलूद से इंदौर तक लाना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। 70 किमी के रास्ते में पड़ने वाले पहाड़ों पर मोटे पाइपों को बांधकर पानी सप्लाई किया गया था।
【 अब 】नर्मदा के चौथे चरण में पानी इंदौर से आगे पहुंचाने की बात कही जा रही है।
【 तब 】1990: जब कॉलेज और हायर एजुकेशन के लिए संस्थान खुलना शुरू हुए
नब्बे के दशक में इंदौर मध्यप्रदेश के एजुकेशन हब के रूप में स्थापित होना शुरू हुआ। यहां प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराने वाले कई संस्थान खुलने लगे। आज इंदौर कोटा को टक्कर दे रहा है। कोटा और दिल्ली के ज्यादातर संस्थानों ने अपनी ब्रांच इंदौर में खोली है। देशभर से पढ़ने के लिए छात्र अब इंदौर का रुख करते हैं। इंदौर एक मात्र शहर है, जिसमें आईआईएम और आईआईटी है। यहां मैनेजमेंटर मेंटोरशिप के साथ तकनीकी मेंटोरशिप भी मिलती है।
【 तब 】1998: विश्वस्तरीय मैनेजमेंट की पढ़ाई, देश का छठवां IIM
भारतीय प्रबंध संस्थान (IIM) इंदौर की स्थापना 1998 में की गई थी। यह देश का छठवां IIM था। देश के एजुकेशनल संस्थानों में इसकी रैंकिंग पांचवीं है। 2011 में कक्षा बारहवीं के बाद युवाओं को प्रबंध की शिक्षा के लिए भारत में पहली बार इस संस्थान में पंचवर्षीय एकीकृत कार्यक्रम (आईपीएम ) प्रारंभ किया गया। इस कार्यक्रम में विश्व स्तरीय शिक्षा के साथ बी.ए. और एमबीए की डिग्री दी जाती है। यह अपने आप में एक अनूठा प्रयास है।
【 अब 】आईआईएम इंदौर ने 2022 की प्लेसमेंट रिपोर्ट जारी की है। इसमें बताया है कि इस बार दो वर्षीय पोस्ट ग्रेजुएट प्रोग्राम और पांच वर्षीय इंटीग्रेटेड प्रोग्राम में कुल 572 विद्यार्थियों को जॉब का ऑफर मिला है। औसत पैकेज में 6.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। इस बार यह पैकेज 25 लाख रुपए तक पहुंच गया है। पिछली बार औसत पैकेज 23.6 लाख रुपए था। अधिकतम पैकेज में 7 लाख रुपए की कमी आई है। यह 49 लाख रुपए रहा।
【 तब 】2009: कई रिसर्च पर काम शुरू हुआ
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) इंदौर की स्थापना 2009 में हुई थी। शुरुआत में इसकी क्लासेस देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग एवं प्रौद्योगिकी संस्थान में लगीं। 2016 में इसका कैंपस बन जाने के बाद अब सारा कामकाज यहीं से चलता है। आईआईटी इंदौर ने कई तरह की रिसर्च करके दुनिया को चौंका दिया है। वर्तमान में इसमें सस्ते ई वाहन उपलब्ध कराने को लेकर काम चल रहा है।
【 अब 】प्लेसमेंट प्रक्रिया के बीच सत्र 2021-22 की जारी रिपोर्ट के मुताबिक पिछले सालाें की तुलना में छात्रों के औसत पैकेज में 7 लाख रुपए की बढ़ोतरी हुई है। सालाना औसत पैकेज 18 लाख से बढ़कर 25 लाख पर पहुंच गया है। अधिकतम पैकेज 60 लाख पर पहुंच गया।
【 तब 】2017 : देखने को मिला शहर काे जिताने का जुनून
2017 से इंदौर सफाई में नंबर वन आ रहा है। लगातार छह साल से इंदौर देश के साढ़े तीन सौ शहरों को पछाड़कर नंबर वन का तमगा छीन लेता है। ये सब एक दिन में नहीं हुआ। 2017 में जब पहली बार इंदौर सफाई में नंबर वन हुआ तो इसके पीछे तत्कालीन नगर निगम आयुक्त मनीष सिंह की मेहनत थी। वो मनीष सिंह ही थे, जिन्होंने कचरे के ढेर वाले इंदौर को सफाई वाले इंदौर की पहचान दिलाई।
क्लीनेस्ट सिटी मुहिम के मनीष के साथ काम कर चुके लोग बताते हैं कि उस समय इंदौर में सफाई कर्मचारियों के ठेकेदार मनमानी करते थे। सबसे पहले मनीष ने उन्हें भरोसे में लिया। सफाई कर्मचारियों का बायोमैट्रिक अटेंडेंस सिस्टम शुरू किया। शहर के चौराहों से कचरा पेटी हटवाई और डोर टू डोर कचरा कलेक्शन शुरू किया। इसके बाद इंदौर के लोगों की बारी थी, उन्होंने इधर उधर कचरा फेंकने की बजाय प्रॉपर कचरा गाड़ी गीला और सूखा कचरा फेंकना शुरू किया।
लोग बताते हैं कि जब पहली बार हमें सफाई में नंबर वन होने का खिताब मिला तो यकीन नहीं हुआ, लेकिन शहर की बदलती रंगत ने यकीन दिला दिया। जनभागीदारी के चलते ही इंदौर लगातार छह बार से नंबर वन बना हुआ है।
【 अब 】 छह बार लगातार एक नंबर आने के बाद अब कचरे से 17 हजार किलो सीएनजी रोजाना बना रहा है। यहां एशिया का सबसे बड़ा प्लांट है। साथ ही सीमेंटेड वेस्ट से भी सामग्री बनाई जा रही है।
नोट: इस खबर में कुछ वृतांत लोक श्रुति के आधार पर हैं, उनके कोई दस्तावेज नहीं हैं।
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