1 जनवरी 1950 को इंदौर में रिफअत उल्लाह साहब के घर राहत साहब का जन्म हुआ था। उनके पिता रिफअत उल्लाह 1942 में देवास के सोनकच्छ से इंदौर आकर बस गए थे। जब वे इंदौर आए थे तो उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन उनका बेटा राहत इस शहर की सबसे बेहतरीन पहचान बन जाएगा। राहत साहब का बचपन का नाम कामिल था, जो बाद में बदलकर राहत उल्लाह कर दिया गया।
राहत इंदौरी के पिता ने सोनकच्छ से इंदौर आने के बाद ऑटो चलाया, मिल में काम किया। यह वह दौर था जब पूरे विश्व में आर्थिक मंदी का दौर चल रहा था। 1939 से 1945 तक चले दूसरे विश्वयुद्ध ने पूरे यूरोप की हालात खराब कर रखी थी। उन दिनों भारत के कई मिलों के उत्पादों का निर्यात यूरोप होता था। युद्ध के कारण भारत से होने वाला निर्यात ठप हो गया। कई कपड़ा मिलें बंद हो गई। इंदौर में भी कपड़ा मिलों पर इसका असर हुआ और राहत इंदौरी के पिता की छंटनी में नौकरी चली गई। इसके चलते राहत साहब का बचपन मुफलिसी में गुजरा।
इंदौर से ग्रेजुएशन के बाद भोपाल से एमए किया
इंदौर के ही नूतन स्कूल से राहत इंदौरी ने हायर सेकेंडरी की पढ़ाई पूरी की। इंदौर के ही इस्लामिया करीमिया कॉलेज से ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय से एमए किया था। 1985 में राहत साहब ने मप्र के भोज मुक्त विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की थी। वे इंदौर की देवी अहिल्या यूनिवर्सिटी में उर्दू साहित्य के प्राध्यापक भी रहे थे।
चित्रकारी में भी काफी नाम अर्जित किया था राहत साहब ने
राहत इंदौरी की दो बड़ी बहनें थीं जिनके नाम तहजीब और तकरीब थे, एक बड़े भाई अकील और फिर एक छोटे भाई आदिल रहे। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी और राहत साहब को शुरुआती दिनों में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। उन्होंने अपने शहर इंदौर में मात्र 10 साल की उम्र से ही एक साइन-चित्रकार के रूप में काम करना शुरू कर दिया था। चित्रकारी उनकी रुचि के क्षेत्रों में से एक थी और बहुत जल्द ही इस क्षेत्र में उनका नाम हो गया था। अपनी प्रतिभा, असाधारण डिजाइन कौशल, शानदार रंग भावना और कल्पना के चलते वह कुछ ही समय में इंदौर के व्यस्ततम साइनबोर्ड चित्रकार बन गए थे। एक दौर वह भी था जब ग्राहकों को राहत द्वारा चित्रित बोर्डों को पाने के लिए महीनों का इंतजार करना भी स्वीकार था।
मैं भी शेर पढ़ना चाहता हूं, इसके लिए क्या करना होगा
राहत साहब पर लिखी डॉ. दीपक रुहानी की किताब 'मुझे सुनाते रहे लोग वाकया मेरा' में एक किस्से का जिक्र है जो इस प्रकार है...राहत साहब इंदौर के नूतन हायर सेकेंड्री स्कूल में पढ़ते थे, जब वे नौंवी क्लास में थे तो उनके स्कूल में एक मुशायरा होना था। राहत की ड्यूटी शायरों के वेलकम में लगी थी। वहां जब जांनिसार अख्तर आए तो राहत साहबा उनसे ऑटोग्राफ लेने पहुंचे और कहा कि मैं भी शेर पढ़ना चाहता हूं, इसके लिए क्या करना होगा। इस पर इस पर जांनिसार अख्तर साहब बोले- पहले कम से कम पांच हजार शेर याद करो..तब राहत साहब बोले- इतने तो मुझे अभी याद हैं। तो जांनिसार साहब ने कहा- तो फिर अगला शेर जो होगा वो तुम्हारा होगा..।
इसके बाद जांनिसार अख्तर ऑटोग्राफ देते हुए अपने शेर का पहला मिसरा लिखा- 'हमसे भागा न करो दूर गज़ालों की तरह', राहत साहब के मुंह से दूसरा मिसरा निकला- 'हमने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह..'।
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