जबलपुर जिले के कुंडम और कटनी जिले के 30 गांवों के 498 आदिवासी बच्चे ग्राफ्टिंग में कमाल दिखा रहे हैं। ये बच्चे सब्जी की बागवानी को प्रोत्साहित करने की योजना से जुड़कर बैंगन के पौधे में टमाटर प्रत्यारोपित कर देते हैं। ये पौधे दो महीने में फल देने लगते हैं। सामान्य टमाटर के पौधे की तुलना में इसका उत्पादन भी अधिक होता है। इस प्रयोग को ग्राफ्टिंग कहा जाता है।
दोनों जिलों के आदिवासी बहुल ढीमरखेड़ा क्षेत्र में उद्यानिकी की बारीकियां सीख रहे सभी बच्चों की उम्र 10 से 15 साल के बीच है। अब ये बच्चे ग्राफ्टिंग में इतने कुशल हो गए हैं कि एक ही पौधे से वे टमाटर, बैंगन, शिमला मिर्च और खीरे का उत्पादन लेने की जुगत में लगे हैं।
इस तरह करते हैं ग्राफ्टिंग
पहले लोकल टमाटर की नर्सरी तैयार की जाती है। इसमें तैयार बैंगन के तने में उसी साइज के तने वाले टमाटर के तने की ग्राफ्टिंग कर दी जाती है। इसके ऊपर टेप और प्लास्टिक क्लिप लगाने के बाद ग्राफ्ट किए गए पौधे को 24 घंटे के लिए अंधेरे में रखा जाता है। इसके बाद इसे कहीं भी रोपा जा सकता है। इस तकनीक को टमाटर के अलावा शिमला मिर्च, बैंगन और खीरे पर भी कारगर माना गया है।
इस तरह से होता है पौधों का प्रत्यारोपण
बैंगन और टमाटर के बीज की नर्सरी एक साथ तैयार करते हैं। जब दोनों पौधे ढाई महीने में एक समान मोटाई के हो जाते हैं, तब इसका प्रत्यारोपण होता है। बैंगन का तना मजबूत होता है, जबकि टमाटर का पौधा कमजोर होता है। इस कारण टमाटर का पौधा एक ही बार फल देता है। बैंगन के पौधे मजबूत होते हैं, इस कारण प्रत्यारोपण इसी पौधे में किया जाता है। सबसे पहले बैंगन-टमाटर के पौधे कटिंग करते हैं। 4 इंच से लेकर 6 इंच के बीच तिरछी कटिंग करते हैं। इसी तरह टमाटर के पौधे की कटाई होती है। टमाटर का पतला वाला हिस्सा बैंगन के मोटे वाले हिस्से में चिपका दिया जाता है। इसके बाद पॉलिथिन से बांध दिया जाता है। 2 माह बाद प्रत्यारोपण वाला पौधा फल देने लगता है।
इस तकनीक से ये है फायदा
इस तकनीक का सबसे बड़ा फायदा यह है कि 72-96 घंटे तक पानी से भरे रहने पर भी इसके पौधे खराब नहीं होते हैं। टमाटर की दूसरी प्रजाति 20 से 24 घंटे से ज्यादा जलभराव झेल नहीं पाते। इसके अलावा, इसकी खेती भी बहुत आसान है। ग्राफ्टिंग पौधे छत और गमलों में आसानी से लगाए जा सकते हैं। किसान भी इस तकनीक की खेती से अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं।
एक संस्था ने दिया बच्चों को प्रशिक्षण
जयभारती शिक्षा केंद्र के संचालक भरत यादव के मुताबिक, साधारण बीजों से सब्जी और फलों के उत्पादन में कमी आ रही है, जबकि ग्राफ्टिंग के माध्यम से इस तरह के साधारण बीज वाले पौधे से भी अधिक उत्पाद ले सकते हैं। इस विधि द्वारा हम एक ही पौधे से दो अलग-अलग प्रकार की सब्जी या फल ले सकते हैं। बच्चों को कुछ समझाना और सिखाना अधिक आसान होता है। इस कारण उनका चयन कर प्रशिक्षण दिया जा रहा हे। इसकी शुरुआत अभी कुंडम व ढीमरखेड़ा गांव से की गई है।
आदिवासी बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने कई तरह के ट्रेनिंग
संस्था की तरफ से आदिवासी बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सब्जी-बागवानी के साथ ही टूलकिट के माध्यम से कृषि संबंधी प्लम्बर, साइकिल मैकेनिक और ग्राफ्टिंग करने के लिए जरूरी 20 तरह के औजार दिए गए। बच्चों को अपने घर पर कचरे से खाद बनाने का गुर भी सिखाया गया है। इसका उपयोग वे सब्जी और फलदार पौधों में करते हैं। हर गांव में 10वीं और 12वीं पास महिला कार्यकर्ता का चयन किया गया है। वह बच्चों को इस तरह के प्रशिक्षण में मदद दे सके। साक्षर बनाने के साथ ही बच्चों की पढ़ाई भी कराई जाती है।
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