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सी-ब्लॉक के पीछे टापरी में बुझे मन से आपस में एक-दूसरे को दिलासा देते श्रमिकों के झुंड, घरों के भीतर खाली बर्तनों से झांकती उनकी गरीबी और घर में भूख एवं मायूसी से भरे परिवारजनों के चेहरे। पिछले 11 महीनों से कुछ इसी तरह का दर्द झेलते हुए ठेका श्रमिकों के साथ उनके परिवार के सदस्य भी लाचारी की जिंदगी जी रहे हैं।
स्थिति यह है कि ब्याज पर रुपए उधार लेकर किसी तरह एक वक्त का खाना नसीब हो पाता है। ग्रेसिम उद्योग द्वारा कोरोना काल में सैकड़ों ठेका श्रमिकों को कार्य से बाहर कर दिया है। लॉकडाउन समाप्त हुआ, उद्योग में काम भी शुरू हुआ लेकिन श्रमिकों की जिंदगी अभी भी लॉक पड़ी हुई है। भास्कर की टीम ने जब इन मजदूरों की वास्तविक स्थिति जानी तो अपना दर्द बताते हुए श्रमिकों आैर परिजनों की आंखें भर आई।
इधर श्रमिकों की ओर से षड्यंत्रपूर्वक कार्य से वंचित करने और नौकरी से निकालने की सहायक श्रमायुक्त को शिकायत भी की है। सहायक श्रमायुक्त कार्यालय उज्जैन से उद्योग के वरिष्ठ अधिकारियों के. सुरेश, योगेंद्र सिंह रघुवंशी, महावीर जैन, विनोद मिश्रा और ठेका एजेंसी गायत्री कांट्रेक्टर को पत्र जारी किया है, जानकारी 7 दिनों में कार्यालय में प्रस्तुत करने के निर्देश दिए हैं। 24 फरवरी को दोपहर 1 बजे बैठक भी रखी है।
सिर्फ 3 कहानियों से समझें- बिना रोजगार कैसे जी रहे हैं ये ठेका श्रमिक
कभी आटा नहीं रहता तो कभी एक आलू की सब्जी बनाकर खाता है पूरा परिवार, उधार से चला रहे घर
श्रमिक रमेशचंद्र गौतम ग्रेसिम उद्योग में ठेका श्रमिक के रूप में 30 साल से काम कर रहे थे। उन्हें प्रतिदिन 462 रुपए मजदूरी मिलती थी। उनके परिवार में पत्नी पुष्पादेवी, बेटा विशाल और बेटी आंचल भी है, जिनका भरण-पोषण रमेशचंद्र पर ही निर्भर है लेकिन पिछले 11 महीने से रमेशचंद्र के पास कोई काम नहीं है। रमेशचंद्र ने बताया रुपयों के अभाव में बेटी का कक्षा 12वीं की पढ़ाई बंद करवाना पड़ी।
बेटे विशाल का भी आईआईटी में सिलेक्शन हो गया था लेकिन उसे भी पढ़ाई छोड़कर इलेक्ट्रॉनिक की दुकान पर काम करने पर मजबूर होना पड़ा। रमेशचंद्र ने बताया किसी तरह उधार रुपए लेकर एक वक्त का खाना बनता है। कई बार भूखे ही सोना पड़ता है। कभी आटा नहीं रहता तो कभी केवल एक आलू की सब्जी बनाकर पूरा परिवार खाता है।
रुपए नहीं होने से मजबूरी में बच्चों के स्कूल छुड़वाए दो को सरकारी स्कूल में दिलाना पड़ा दाखिला
श्रमिक सुरेश कटारिया 19 साल से ठेका श्रमिक के रूप में ग्रेसिम उद्योग में कार्य करते थे। उन्हें प्रतिदिन 411 रुपए मजदूरी मिलती थी, जिसमें वे अपनी पत्नी संगीता और चार बच्चों का भरण-पोषण करते थे। 11 महीने से उनके पास काम नहीं है और मकान भी किराए का है। पीएफ का डेढ़ लाख रुपए भी निकाल चुके हैं। इसके बावजूद रुपयों के अभाव में बेटी पायल को 12वीं कक्षा में और बेटे निखिल को 11वीं कक्षा में सरकारी स्कूल में दाखिला दिलाना पड़ा।
वहीं बेटी प्राची की आठवीं कक्षा की और बेटे पंकज की छठवीं कक्षा की पढ़ाई बंद करवाना पड़ी। कुछ दिन पहले ही बिजली का बिल नहीं भरने पर बिजली काट दी गई। सुरेश ने बताया 5 प्रतिशत ब्याज पर रुपए उधार लेकर आए और बिजली बिल भरा, तब जाकर 6 दिन में घर में रोशनी आई। कोई काम भी नहीं है, अगर हमें कुछ होता है तो उसका जिम्मेदार उद्योग प्रबंधन है।
मां लकवाग्रस्त, श्रमिक का भी पैर टूटा, अब ऐसी स्थिति कि उपचार तक के लिए भी नहीं हैं रुपए
श्रमिक जनार्दन साहनी 12 साल से ग्रेसिम उद्योग में ठेका श्रमिक के रूप में काम कर रहे थे। उन्होंने रोजाना 376 रुपए की मजदूरी मिलती थी। इसी में मां केदलीबाई, पत्नी गिरिजाबाई और तीन बच्चे अतुल, अभिषेक व आयुष का भरण-पोषण करते थे। कार्य से बाहर किए जाने के कारण अब आर्थिक तंगी ने पूरी तरह घेर लिया है। मां केदलीबाई लकवाग्रस्त हैं।
दो महीने पहले जनार्दन भी छत पर कार्य करते हुए गिर गए और उनका पैर टूट गया। स्थिति यह है कि अब उपचार तक कराने के लिए रुपए नहीं है। निजी स्कूल में बच्चों की फीस भी 25 हजार रुपए बकाया हो गई तो तीनों बच्चों का स्कूल छुड़वाना पड़ा। जनार्दन ने बताया पीएफ खाते से 13 हजार रुपए निकाले थे। उसी में 5-6 महीने गुजारा किया। अब तो ब्याज पर रुपए लेकर भी एक वक्त का ही खाना नसीब हो पा रहा है।
सवाल: जब प्रोडक्शन शुरू तो मजदूर बाहर क्यों?
सैकड़ों ठेका श्रमिकों को कार्य से बाहर किए जाने के बाद सड़कों पर आंदोलन भी हुए। राजनीति भी हुई लेकिन कोई भी ठेका श्रमिकों को वापस कार्य पर रखवाने में सफल नहीं हो सका। सबसे बड़ा सवाल यह है लॉकडाउन के बाद उद्योग में प्रोडक्शन अब पूरी तरह शुरू हो चुका है तो फिर श्रमिकों को कार्य पर क्यों नहीं बुलाया जा रहा? कई श्रमिक तो रोजी-रोटी की तलाश में नगर से पलायन तक कर चुके हैं। मामले में उद्योग प्रबंधन के पीआरओ संजय व्यास से संपर्क किया लेकिन वह भी कुछ कहने को तैयार नहीं हुए।
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