सफेद तिल और चासनी से बनी ब्यावर की तिलपट्टी राजस्थान ही नहीं बल्कि देश-विदेश में भी महक बिखेर रही है। कारीगर चासनी में मिले तिल को रोटी की तरह बड़े थालों में बेलकर पापड़ जैसा महीन बनाते हैं। बीते 80 सालों से यहां के लोकल कारीगर इसे हाथों से तैयार कर रहे हैं। ब्यावर का यह जायका करोड़ों रुपए का सालाना कारोबार कर रहा है।
जिस विधि से यह तिलपट्टी तैयार की जाती है, उसे कहीं भी बनाया जा सकता है, लेकिन ब्यावर में बनी तिलपट्टी जैसा टेस्ट और कुरकुरापन कहीं और नहीं मिलता है। कारीगरों ने बाहर ऐसी ही तिलपट्टी बनाने के कई प्रयास भी किए, लेकिन ऐसा स्वाद नहीं ला सके। इसके पीछे मुख्य कारण यहां के क्लाइमेट को भी माना जाता है।
अजमेर से करीब 50 किमी दूर ब्यावर में करीब 50 से ज्यादा दुकानों में तिलपट्टी बनने का काम इस समय शबाब पर है। हल्की सर्दी आते ही तिलपट्टी का निर्माण कार्य युद्ध स्तर पर शुरू हो जाता है। एडवांस ऑर्डर के चलते व्यवसायियों पर समय पर माल सप्लाई का दबाव रहता है।
यहां करीब पच्चीस से तीस थोक विक्रेता और सौ से ज्यादा फुटकर विक्रेता हैं। तिल से व्यंजन बनाने वाले सैकड़ों कारीगरों को साल भर रोजगार मिलता है। व्यापारी प्रदीप सिंह के मुताबिक तिलपट्टी का सालाना कारोबार दस करोड़ रुपए से ज्यादा है।
ऐसे बनती है तिलपट्टी
तिलपट्टी बनाने के लिए सबसे पहले सफेद तिल को पूरी तरह साफ किया जाता है, जिससे की कोई कंकड़ न रहे। फिर इसे पानी में भिगो देते हैं। भीगे तिल को सुखाने के बाद उसकी हल्के हाथों से कुटाई की जाती है, ताकी एक-एक दाना अलग हो जाए। इसके बाद बड़े कढ़ाव में सेंका जाता है। इसके बाद दोबारा से सफाई कर फूस बाहर निकाल देते हैं। शक्कर की चाशनी बनाते समय उसमें थोड़ा नींबू डाला जाता है।
इस चासनी को कड़ाव में रखे तिल में डालते हैं। हल्का ठंडा होने पर लोए बनाए जाते हैं। लोए बनने के तत्काल बाद वहां मौजूद कारीगर इसे रोटी की भांति बेलन से बेल देते हैं। इलायची वाली तिलपट्टी के लिए चासनी डालने से पहले तिल में इलायची के दाने डालते हैं, पिस्ता-इलायची वाली तिलपट्टी बनाने में भी यही प्रक्रिया अपनाई जाती है। स्वाद बढ़ाने के लिए किशमिश, इलायची, बादाम कतरन और अन्य सामग्री भी मिलाई जाती है।
1938 में हुई शुरूआत, आज विभिन्न प्रकार के ब्रांड
बताया जाता है ब्यावर में सबसे पहले 1938 में तिलपट्टी रामधन भाटी ने बनानी शुरू की थी। आज रामधन भाटी की चौथी पीढ़ी में उनके पड़पोते प्रदीप सिंह भी इसी कारोबार में जुटे हैं। घरों में जिस तरह घर की बुजुर्ग महिलाएं सर्दियों में तिल के लड्डू बनाती थीं, उन्हीं पर रामधन ने प्रयोग किया। इसका टेस्ट पसंद आया तो धीरे-धीरे इसमें बदलाव हुए और फिर तिल के बराबर महीन बनने वाली तिलपट्टी अस्तित्व में आई। मांग बढ़ने लगी तो लोकल कारीगरों ने इस काम को आगे बढ़ाया।
आज ब्यावर के हलवाई गली, नृसिंह गली, रोडवेज बस स्टैंड, चांगगेट अंदर व बाहर, सेंदड़ा रोड, सेंदरिया सहित विभिन्न क्षेत्रों में तिल के व्यंजन बनाने के कारखाने हैं। इसमें रामधन तिलपट्टी, ठाकुर तिलपट्टी, गोयल तिलपट्टी, आसाराम तिलपट्टी, ओम तिलपट्टी, खत्री तिलपट्टी, राधिका तिलपट्टी, राधे-राधे तिलपट्टी, संतोष तिलपट्टी, गोपाल तिलपट्टी सहित विभिन्न प्रकार के ब्रांड है।
150 से 500 रुपए प्रति किलो
ब्यावर की तिलपट्टी को तिल के पापड़ भी कहा जाता है। क्वालिटी और फ्लेवर के हिसाब से इनके भाव अलग-अलग हैं। ये 150 रुपए लेकर 500 रुपए किलो तक बिकते हैं। तिलपट्टी सादा के अलावा पिस्ता, इलायची, बादाम-काजू, कुरकरे फ्लेवर में उपलब्ध हैं। इनके भाव मटेरियल के अनुसार तय किए जाते हैं।
विदेशों में भी ब्यावर की धाक
तिलपट्टी का स्वाद देश ही नहीं बल्कि सात समुंदर पार विदेशी लोगों की जुबान पर भी चढ़ चुका है। देश के बाहर रहने वाले भारतीय ब्यावर की तिलपट्टी मंगवाते हैं। देश में यह मुख्यत: मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई, सूरत, दिल्ली, कोलकाता, रायपुर, इंदौर, जयपुर, सूरत, पुणे आदि जगहों पर भी भेजी जाती है।
सर्दी में बढ़ती मांग व खपत
वैसे तो ब्यावर में साल भर ही तिल के बने व्यंजनों का कारोबार होता है, लेकिन सर्दी में इसकी खपत बढ़ जाती है। आम दिनों में एक व्यापारी औसतन दौ सौ किलो प्रतिदिन तिल के व्यंजन बनाता है, वहीं खपत और मांग बढ़ने से इन दिनों व्यापारी पांच सौ से छह सौ किलो प्रतिदिन व्यंजन तैयार कर रहे है।
तिल खाने के फायदे
(फोटो सहयोग- नवीन गर्ग)
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