आज हम आपसे हिस्ट्री का एक सवाल पूछते हैं? 1857 की क्रांति का शंखनाद राजस्थान में कहां से हुआ था। इसका सही जवाब है अजमेर जिले के नसीराबाद से। अगर कोई ये पूछे कि सबसे बड़ी कचौरी कहां बनती है। तो इसका सही जवाब भी नसीराबाद ही है। राजस्थान की सबसे बड़ी कचौरी जिसे 80 साल पहले प्यारेलाल नाम के हलवाई ने बनाया था। साइज बड़ा होने के कारण इसे कचौरा कहा जाता है। आज राजस्थानी जायका के सफर पर आपको ले चलते हैं उस ऐतिहासिक जगह, जहां बिकता है 12 इंच बड़ा 'नसीराबाद का कचौरा'.....
ऐसे हुई शुरुआत
करीब 80 साल पहले आगरा से नसीराबाद आए प्यारेलाल गुर्जर वहां की फेमस बेड़ई पुड़ी बनाने में माहिर थे, लेकिन कचौरी खाने वाले राजस्थानियों के लिए यह स्वाद बिलकुल नया था। प्यारेलाल ने बेड़ई के साथ कई प्रयोग किए। धीरे-धीरे इसका साइज बढ़ाया और मसालों के मिश्रण से इसे लाजवाब बना दिया। खाने-पीने के शौकीनों में कचौरी का बड़ा साइज फेमस होने लगा। वहीं, इसके स्वाद ने भी लोगों की दिलों में जगह बनाई।
सालों तक प्यारेलाल के कचौरा ने लोगों के दिलों में एकछत्र राज किया। उनके बाद हलवाई रामलाल गुर्जर ने इसे आगे बढ़ाया। धीरे-धीरे दूसरे हलवाईयों ने भी इसे बनाने का तरीका सीखा। आज उन्हीं के हाथों से बनी 12 इंच बड़ी कचौरी 'नसीराबाद का कचौरा' नाम से फेमस है।
नसीराबाद के प्रसिद्ध चवन्नीलाल कचौरा वाले के बेटे कल्याणमल गुर्जर ने बताया कि उनके पिता ने कचौरा बनाने का तरीका प्यारेलाल से ही सीखा था। आज करीब 70 सालों से इसका 12 इंच साइज और स्वाद दोनों बरकरार है। वे बताते हैं एक कचौरा का वजन करीब 600 से 650 ग्राम होता है। इसमें कम से सम 250 ग्राम दाल और मसाले के स्टफिंग की जाती है।
सबसे खास बात यह है कि कचौरा 10 दिन तक खराब नहीं होता और इसे पीस की बजाय किलो के हिसाब से बेचा जाता है। कचौरा खाने के लिए सुबह-सुबह लोगों की भीड़ उमड़ती है। नसीराबाद के मेन बाजार की दुकानों सहित रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड पर सबसे ज्यादा सेल होती है। लोग ऑनलाइन ऑर्डर देकर भी इसे मंगवाते हैं।
दो तरह के टेस्ट में मिलता है कचौरा
कल्याणमल ने बताया कि कचौरा दो तरह के मसालों से तैयार किया जाता है। एक आलू मसाला और दूसरा उड़द दाल मसाला से। ये बिल्कुल आलू कचौरी और दाल कचौरी की ही तरह है, लेकिन नसीराबाद के कचौरा का घेरा करीब 12 इंच का होता है।
ऐसे तैयार होता है कचौरा
सबसे पहले मैदा में नमक व तेल डालकर इसका लोया बनाया जाता है। स्टफिंग तैयार करने के लिए उड़द दाल या आलू लेते हैं। इसमें लोंग, काली मिर्च, धनियां व हींग आदि का तैयार मसाला डाला जाता है। अब करीब 200 से 250 ग्राम मसाला लेकर बाउल शेप में लोये में भरा जाता है। अब हाथों से लोए को फैलाया जाता है। इसके बाद उसे खौलते तेल में ब्राउन होने तक डीप फ्राई करते हैं। कचौरा तैयार करने में करीब 1 घंटे की प्रोसेस लगती है। इसे हरी चटनी के साथ परोसा जाता है।
छोटी सी दुकान से करोड़ों के कारोबार तक
कचौरा की शुरुआत प्यारेलाल हलवाई ने करीब 80 साल पहले एक छोटी सी दुकान से की थी। आज नसीराबाद में करीब 40 छोटी-बड़ी दुकानों पर बिकता है। सबसे बड़ी दुकानों की संख्या 5 है। जहां रोज 200 किलो से ज्यादा कचौरा प्रति दुकान सेल होती है। अकेले चवन्नी लाल की सेल 250 किलो से ज्यादा है।
छोटी दुकानों पर सेल उनके टेस्ट, रेट और सीजन पर टिकी है। 30 से 35 छोटी दुकानों पर 50 किलो सेल की औसत है। अगर पूरे नसीराबाद की बात करें तो रोज एक हजार से 1200 किलो कचौरा बिकता है। एक किलो कचौरा की कीमत 250 रुपए है। ऐसे में रोज 3 लाख के करीब का कचौरा बिक जाता है।
सैकड़ों लोगों को मिला है रोजगार
कचौरा से मिली पहचान ने नसीराबाद के हलवाइयों को नाम और काम दोनों दिए हैं। आज करीब 500 से ज्यादा लोगों को इससे रोजगार मिल रहा है। नसीराबाद के कचौरा को अजमेर, किशनगढ़ और ब्यावर ले जाकर भी बेचा जाता है। अप्रत्यक्ष रूप से भी सैकड़ों लोग रोजगार कर रहे हैं।
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