सरिस्का के जंगल में भर रहे बाबा भर्तृहरि के लक्खी मेले में हर दिन हजारों लाठियों बिकती है। सजावटी-बनावटी और मजबूत लाठियों की इस बार ज्यादा मांग है। लाठी बेचने वालों की बिक्री बढ़ गई है। इसके अलावा यही मेला है जिसमें मूसल, तवे, बिलौनी सहित लकड़ी व लोहे के कई घरेलू आइटम बिकते हैं।
शहरी इलाकों के मेलों में ये आइटम नहीं मिलते। सरिस्का के आसपास के सैकड़ों गांवों में इनकी खरीददारी जमकर होती है। अन्य सालों की तुलना में इस बार लाठियों की बिक्री ज्यादा है। लोगों में इन आइटम को लेकर क्रेज फिर से बढ़ रहा है। इससे पहले इलेक्ट्रिक आइटम ज्यादा बिकने लगे थे।
पशुपालकों के काम का अस्त्र
असल में गांवों में पशुपालकों के लिए लाठी काम का अस्त्र है। जो घर की सुरक्षा के लिए लिहाज से भी काम आता है। वहीं जंगली जानवर व पशुओं की देखरेख में भी काम आता है।उनसे सुरक्षा भी करता है। हर घर में दो-चार लाठी रखी जाती हैं।
शहरों में एक भी घर में मूसल नहीं मिलता। बल्कि अब तो गांवों में भी बहुत कम देखा जाता है। लेकिन, सरिस्का व थानागाजी के क्षेत्र में हर घर में मूसल मिल जाता है। यहां आज भी चूरमा के देसी स्वाद होता है। जिसे बनाने में ऊखल-मूसल काम लेते हैं।
इसके अलावा अन्य जरूरत की वस्तु की पिसाई की जाती है। इसी तरह इस मेले में तेव, पशुओं की घंटी, नकचूटी जैसे आइटम दूसरे मेलों में नहीं मिलते हैं। इस कारण भर्तृहरि बाबा का मेला अपने आप में बहुत खास है।
देसी घी के भण्डोर और प्रसादी
पशुपालकों और ग्रामीण देहात का मेला होने के कारण यहां देसी घी के भंडारे होते हैं। जगह-जगह लोग भोजन कराते हैं। दूर-दरात तक के लोग भंडारे लगाने आते हैं। प्याऊ भी खूब होती हैं। कनफड़े साधु भी खूब आते हैं। यहां कई धर्मशालाओं में श्रद्धालुओं के रुकने का इंतजाम है।
इस बार प्रशासन का इंतजाम भी बढ़िया है। यहां अस्थाई स्नानघर व शौचालय भी बनवाए हैं। कचरा पात्र रखवाए हैं। बराबर सफाई होती है। माधोगढ़ के युवाओं की टीम भी सफाई में लगी है। यहां जंगली जानवरों का भी बसेरा रहता है। इस समय हरियाली खूब है।
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