रेगिस्तान में झोंपों (झोपड़ी) की शिफ्टिंग सुनने में जरूर अजीब लग रहा होगा लेकिन, पुराने झोंपे को यादगार व संजोए रखने के लिए ग्रामीण झोंपों की शिफ्टिंग कर रहे हैं। बाड़मेर जिले के सिणधरी उपखंड के करडाली नाडी में अपने बुजुर्गों द्वारा बनाई झोपड़ी को आज भी संजोए हुए हैं। ग्रामीण का कहना है कि झोंपे एयरकंडीशन से कम नहीं होते हैं। अब तक आपने मेट्रो सिटीज में पक्के मकानों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर शिफ्ट होते देखा होगा, लेकिन बाड़मेर के सिणधरी उपखंड के करडाली नाडी गांव में एक ढाणी में बने पुराने झोंपें को यादगार व सुरक्षित रखने के लिए हाइड्रो मशीन की मदद से एक जगह से हटाकर दूसरी जगह पर शिफ्ट किया गया।
करडाली नाडी में ऐसा ही एक झोंपा पुरखाराम ने अपने पक्के मकान के पास शिफ्ट कराया। पुरखाराम के मुताबिक झोपड़े को करीब 40 साल पहले उनके दादा ने बनाया था, लेकिन इसकी नींव कमजोर हो रही थी। झोपड़ा पूरा बिखरे नहीं इसलिए उसको हाइड्रा क्रेन की मदद से दूसरी जगह शिफ्ट किया। अब इस झोपड़े की नींव मजबूत हो गई है। झोपड़े की छत मरम्मत करने के बाद आने वाले 30-40 वर्षों तक सुरक्षित रहेगा। उन्होंने बताया कि अगर समय समय पर इसकी मरम्म्त होती रहे तो यह 100 साल तक सुरक्षित रह सकता है।
ग्रामीण झोंपे शिफ्ट करने के पीछे जो प्रमुख कारण हैं उनमें पहला यह कि अब इसको बनाने वाले लोग कम ही हैं। इसलिए इन्हें सहजने व अपने पूर्वज की विरासत को संभालने के लिए वे शिफ्ट कर रहे हैं। वहीं, हाइड्रा क्रेन से शिफ्ट करने में सिर्फ 6 हजार रुपए लगते हैं तो नया झोंपा बनाने में 80 हजार रुपए की लागत आ जाती है।
उनका कहना है कि युवा अब लकड़ी व मिट्टी के झोंपे तो नहीं बनाना जानते परंतु बुजुर्गों के हाथ से बनाया आशियाना संभाल कर रख रहे हैं। ग्रामीण पुरखाराम का कहना है कि यह झोपड़ी मेरे दादा ने लोगों के सहयोग से बनाई थी। अभी पक्का मकान बना दिया है, लेकिन रेगिस्तान में पड़ने वाली गर्मी को देखते हुए झोंपे को मकान से करीब 80 मीटर की दूरी पर पेड़ के नीचे शिफ्ट किया है। गर्मी में यह झोंपें एयरकंडीशनर से कम राहत नहीं देता। बुजुर्गों की विरासत को संजोए रखने के लिए इसको घर के पास शिफ़्ट किया है। आने वाली पीढ़ियां इस झोंपें को देखें और बुजुर्गों को याद कर सकें।
झोंपे की ख़ासियत
रेगिस्तान में धोरे गर्मियों में बहुत जल्दी गर्म होते हैं और गर्मी व लू की वजह से गांवों में लोग इन झोपों का सहारा लेते हैं। गांवों में पक्के मकान तेज धूप व लू की वजह से तपते ज्यादा हैं। झोंपे गर्मी में ठंडे रहते हैं। इस वजह से गांवों में आज भी झोपों को संजोए रखते हैं।
एक झोपड़ी बनाने में 70-80 हजार होते है खर्च
ग्रामीण पुरखाराम बताते हैं कि एक झोंपें को तैयार करने में 50-70 लोगों को लगना पड़ता है। इसको बनाने में दो-तीन दिन लग जाते हैं। एक झोंपें बनाने में करीब 80 हजार रुपए की लागत आती है, लेकिन आज के युवा को झोंपा बनाना नहीं आता है और नहीं बनाने में रूचि रखते हैं।
गांवों में जमीन से मिट्टी खोदकर, पशुओं के गोबर को मिक्स करके दीवारें बनाई जाती हैं। इन मिट्टी की दीवारों के ऊपर बल्लियों व लकड़ियों से छप्परों के लिए आधार बनाया जाता है। आक की लकड़ी, बाजरे के डोके (डंठल), खींप, चंग या सेवण की घासों से छत बनाई जाती है। झोंपें के अंदर का फर्श गोबर का बना होता है। झोंपें की दीवारें मिट्टी व गोबर को मिक्स कर बनाई जाती हैं। फिर उसके ऊपर लकड़ी व लाठियों और घास फूस की छत बनाई जाती है।
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