राजस्थान की जायका नगरी बीकानेर की पहचान केवल भुजिया ही नहीं यहां के खास घेवर से भी है। वैसे तो घेवर पर बीकानेर का एकाधिकार नहीं है। लेकिन सर्दी के 2 महीने तक घेवर बीकानेरवासियों की थाली में एक बार नहीं बल्कि कई बार पहुंचता है। एक अनुमान के मुताबिक महज दो महीने में करीब दस करोड़ रुपए के घेवर बिक जाते हैं। राजस्थानियों में इसकी बढ़ती डिमांड के कारण अब यह बाहर भी एक्सपोर्ट होने लगे हैं।
दरअसल, बीकानेर में मळ मास से मकर सक्रांति तक घेवर खाने की अनूठी परम्परा है। इस एक महीने में बेटियों के घर घेवर भेजने की बकायदा रस्म है। जिसे निभाना ही पड़ता है। अगर बेटी का विवाह हुए अभी एक दो साल ही हुए हैं तो 11 से 21 घेवर देने की परम्परा है। और अगर शादी कई साल पहले भी हुई तब भी कम से कम 2 से पांच घेवर तो देने ही होते हैं। इसी परंपरा में घेवर का जायका हर घर तक पहुंच ही जाता है। मळ मास में बेटियों के घर घेवर देने से पुण्य मिलता है, इसी सोच ने घेवर की बिक्री को पंख लगा दिए हैं। बीकानेरी घेवर ने बीते कई सालों में खास पहचान बनाई है और बिक्री भी कई गुना बढ़ गई है।
सर्दी का असर बढ़ने के साथ ही घेवर की दुकानें भी बढ़ जाती हैं। इस समय अकेले बीकानेर शहर में 400 से ज्यादा घेवर की दुकानें हैं। एक दुकान पर रोज की खबत 30 किलो से उपर है। यहां हर रोज सैकड़ों किलो घेवर बिक जाते हैं। कई बड़े रेस्टोरेंट भी घेवर बनाने में जुट जाते हैं। रेस्टोरेंट अम्बरवाला के संचालक रवि पुरोहित बताते हैं कि सिर्फ मळ मास से मकर सक्रांति तक चार करोड़ रुपए के घेवर की बिक्री बीकानेर में होती है। शेष सर्दी के समय को जोड़े तो ये आंकड़ा करीब 10 करोड़ तक पहुंच जाता है।
कैसे बनता है घेवर
घेवर बनाने के लिए मैदा और दूध को मिलाकर उसे मथना पड़ता है। काफी देर मथने के बाद इसे खौलते हुए घी में एक निश्चित मात्रा में डाला जाता है। खौलते हुए घी में ये मिश्रण डालते ही इसमें बुलबुले उठने लगते हैं। ये बुलबुले ही इसमें आरपार के छेद बना देते हैं। मधुमक्खी के जाले की तरह आकार बना जाता है। कुछ ही मिनट में घेवर बनकर तैयार हो जाता है। ये घेवर फीका होता है लेकिन बाद में इस पर चासनी (चीनी से बनी) डाली जाती है। गर्म चासनी डालने से ठंडा घेवर भी गर्म का असास होता है।
अब रबड़ी घेवर का चलन
एक वक्त था जब देशी घी के सफेद घेवर ही बेटियों के यहां दिए जाते थे। लेकिन अब रिश्तेदारों को रबड़ी के घेवर दिए जाते हैं। घेवर पर रबड़ी लगाई जाती है। फिर इस पर केसर, पिस्ता, काजू, बादाम की कतरन डाली जाती है। सामान्य और रबड़ी घेवर की कीमत में काफी अंतर होता है। सीजन में ज्यादातर लोग रबड़ी घेवर ही खीदते हैं।
यहां भी बनते हैं घेवर
बीकानेर में घेवर मळ मास में ही बनते हैं लेकिन जयपुर में सावन तीज के अवसर पर घेवर का चलन है। तब बीकानेर के ही कारीगर जयपुर में जाकर घेवर बनाते हैं। इसके अलावा जोधपुर में भी घेवर बनाने का चलन है।
कई राज्यों तक एक्सपोर्ट
मिठाई कारोबारी बताते हैं कि देशी घी में बने फीके घेवर 5 दिन तक खराब नहीं होते। इसलिए दूसरे राज्यों के हलवाई भी यहां के बने फीके घेवर वहां ले जाकर बेचते हैं। बीकानेर में बनने वाले घेवर अब उत्तरप्रदेश, बंगाल, बिहार, पंजाब, हरियाणा व नई दिल्ली तक जाते हैं।
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