श्मशान में जलती चिताएं देखकर 8 साल की माया डरकर मां के आंचल में छुप जाती थी। दिन ढलने पर जैसे ही अंधेरा होता, सहम जाती थी, लेकिन मां की कही एक बात ने उसकी जिंदगी बदल दी।
'बेटा डरेंगे तो भूखे मरेंगे, काम करने में कोई शर्म नहीं है।'
आज वही माया पिछले 60 सालों में श्मशान में 15,000 से ज्यादा लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार कर चुकी हैं।
श्मशान में आने वाली अर्थी को कंधा कम पड़ता है, तो खुद सहारा बन जाती हैं। जलती चिता की कपाल क्रिया से लेकर आग जब तक ठंडी नहीं पड़ जाती, वहीं बैठकर इंतजार करती हैं। सूरज डूबने के बाद सुलगती चिता के नजदीक ही चारपाई डालकर बेखौफ होकर सो जाती हैं।
आज संडे स्टोरी में कहानी उस मायादेवी बंजारा की, जिसने श्मशान घाट को ही घर बनाया। वहीं, नौ बच्चों को जन्म दिया।
चार बेटों की मौत हुई तो खुद को टूटने नहीं दिया। उनकी चिताओं को अग्नि दी, जिन्हें अपनों ने ही छोड़ दिया....
जयपुर के त्रिवेणी नगर मोक्ष धाम में भास्कर टीम मायादेवी को ढूंढते हुए पहुंची तो लाल रंग की चुनरी ओढ़े एक बुजुर्ग महिला साइकिल रिक्शा पर मिट्टी ढो रही थी।
हमने उन्हें रोककर पूछा कि माया देवी कहां मिलेंगी। उन्होंने बिना रुके जवाब दिया - बेटा मैं ही हूं माया...मेरा मोबाइल नंबर बाहर लिखा है....आप कभी भी फोन करके बता देना। उन्हें लगा कि हम किसी लावारिस लाश के संस्कार के सिलसिले में बात करने आए हैं।
जब हमने परिचय दिया तो उन्होंने काम रोका और हमें चिता को अग्नि देने वाले शेड के पास कुर्सी पर बैठने के लिए कहा। अपना काम पूरा करने के बाद मायादेवी चौखट पर आकर हमारे पास बैठ गईं।
हमारा पहला सवाल और उनका जवाब
अंधेरा होते ही जिस श्मशान में लोग जाने से घबराते हैं, भूत-प्रेत से आपको डर नहीं लगता। हमारे इस पहले सवाल पर माया देवी का जवाब था- डर तो जिंदा लोगों से लगता है, जो खुद मुर्दा हो गया, वो क्या डराएगा? इसके बाद मायादेवी ने अपनी जिंदगी खुद बयां की.....
9 महीने की उम्र में पिता मौत, मां ने ही पाला
मैं जब 9 महीने की थी, तब पिता की मौत हो गई थी। हम चार बहनें और एक भाई था। ज्यादा पढ़ नहीं सकी। छठीं कक्षा तक ही स्कूल जा पाई थी। खाने का भी सकंट होने लगा तो मां गुलाबी देवी जयपुर में ही श्मशान में आकर रहने लगी। मां ने ही पूरे परिवार को पाला-पोसा। बहनों की शादी कर दी थी। मां ने भूत-प्रेत का डर खत्म किया।
चिताएं देखती तो भाग जाती थी
मैं 8 साल की हुई तो श्मशान में चिताएं आते ही देखकर डर कर भाग जाती थी। श्मशान में पैर तक नहीं रखती थी। मां ने मेरे डर को भांप लिया था। मां गुलाबी देवी बीड़ी पीती थी। तब बीड़ी लेकर श्मशान में ही बुलाती थी। एक ही बात कहती थी...'बेटा डरेंगे तो भूखे मरेंगे, कर्म करने में कैसा डर।' मां की इन बातों ने मेरा सारा डर भगा दिया। मैं उनके साथ श्मशान में ही साफ-सफाई करने लगी थी।
कोई डेड बॉडी आती तो मां मुझे प्यार से पास में ही बुलाती थी। डर खत्म होने लगा तो मां के साथ ही चिताओं पर लकड़ियां रखवाती थीं। करीब 14 साल पहले मां गुलाबी देवी की करीब 112 साल की उम्र में मौत हो गई। तब से अकेले ही श्मशान में ही खुद पूरी क्रिया करती हूं।
भूख से लड़ी, श्मशान को घर बनाया
जल्दी ही शादी हो गई थी। इसी श्मशान को मैंने अपना घर बना लिया। नौ बच्चे हुए, लेकिन चार की मौत हो गई। पति के पास कोई रोजगार नहीं था। भूख से लड़ते देखा तो मां ने ही कहा- शर्म मत करो वरना भूखे मर जाओगे। कोई पूछने भी नहीं आएगा।
श्मशान में चिताओं का संस्कार करना कोई गलत काम नहीं है। तब बच्चों को पालने के लिए श्मशान में ही दाह संस्कार करने लगी। खुद ही लकड़ियां तराजू में तोलकर चिता सजाती। अब तो मंत्रों के साथ पूजा भी करवा देती हूं, हालांकि काफी लोग साथ में पंडितों को लेकर आते हैं। दाहसंस्कार के बाद कपाल भी करवाती हूं।
'चाहे 10 शव आ जाएं, हर बार नहाना पड़ता है'
माया देवी बताती हैं कि कर्म के साथ वे धर्म का पूरा ख्याल रखती हैं। अंतिम संस्कार हिन्दू धर्म में 16 संस्कारों में से एक माना गया है। दाह संस्कार के बाद चिता ठंडी होने पर शुद्धिकरण के लिए नहाना ही पड़ता है। कई बार दिन में चार से लेकर 10 शव भी आ जाते हैं। चाहे कितने भी शव आए, हर बार नहाती हैं। कई बार सूरज ढलने के बाद भी शव आ जाते हैं।
चिता पूरी नहीं जलती तो दोबारा लकड़ियां लगानी पड़ती हैं। लोग क्रिया कर्म करवा कर जलती चिता छोड़ कर चले जाते हैं। चाहे रात के 2 बज जाएं, तब भी नहा कर सोती हूं। दिन हो या रात श्मशान में कभी डर नहीं लगता। कई बार तो सुलगती चिता के पास में ही चारपाई डालकर सोना पड़ता है।
माया देवी बताती हैं कि कई बार लोग उसे दाह संस्कार करवाने के लिए मना करते हैं। बोलते हैं कि महिलाएं ये काम नहीं करती। मैंने कभी भी लोगों की बात नहीं सुनी। काम में कोई शर्म नहीं है। गलत काम नहीं करती हूं, पेट की आग सब करने पर मजबूर कर देती है। अब तो महिलाएं काफी आगे हैं। प्लेन उड़ाने से लेकर सारे काम करती हैं। मुझे श्मशान से निकालने के लिए भी कई बार लोगों ने प्रयास किए।
कोरोना में डराने वाले थे हालात
दो साल तक कोरोना संक्रमण की वजह से हालात काफी डराने वाले थे, लेकिन हिम्मत नहीं हारी थी। समिति ने कोरोना के दौरान शवों को श्मशान में लाने से मना कर दिया था। समिति का कहना था कि यहां पर कोरोना के शव आएंगे तो आसपास काफी संक्रमण फैल जाएगा।
कई बार ऐसे लोग भी आए जिनके परिवार में कंधा लगाने को भी कोई नहीं था। ऐसे में उसने समिति का विरोध करते हुए लोगों की मदद की। शवों को कंधा भी लगाया था। यहां तक कई शव ऐसे भी थे जिनका कोई नहीं था। तब उसने ही दाह संस्कार कराया।
लावारिस शवों के लिए खुद के पैसों से गाड़ी खरीदी
माया बताती हैं कि श्मशान घाट में काफी संख्या में लावारिश लाशें भी आती हैं। कहीं पर भी एक्सीडेंट हो जाए, ट्रेन से कट जाएं तो पुलिस पोस्टमार्टम करवा कर लाशों को ले आती है। वह अपनी गाड़ी भेज कर शवों को मंगवाती हैं। गाड़ी की किस्त भी जमा करवा रही हैं।
वह बताती हैं कि करीब 15 हजार से ज्यादा शवों का दाह संस्कार कर चुकी है। कई बार ऐसे शव भी आते है जिन्हें देखकर लोगों की रूह कांप जाती है, लेकिन वह कभी भी नहीं घबराती। मानसरोवर और महेश नगर के श्मशान में लोग कई बार क्रिया कर्म कराने के लिए बुलाते हैं।
अब उस मां की कहानी जो 15 साल से श्मशान में ढूंढ रही अपना बेटा....
सीकर में भी ऐसी महिला हैं, जो 15 साल से श्मशान में ही रह रही हैं। धर्माणा मोक्षधाम अंतिम क्रिया के लिए आए लोगों की मदद के लिए लकड़ियां जुटाती हैं। राजकंवर नाम की महिला ने अपने बेटे को वर्ष 2008 में एक सड़क हादसे में खो दिया था। कोई औलाद नहीं थी, इसलिए अपने हाथों से ही बेटे का अंतिम संस्कार किया।
अंतिम बार अपने कलेजे के टुकड़े से बात नहीं कर पाने का ऐसा गम लगा कि राजकंवर ने श्मशान में ही रहना शुरू कर दिया। श्मशान में जो भी मुर्दा आता है राज कंवर उसे अपना बेटा समझकर दाह संस्कार करवाती है। आज भी वे ये मानती हैं कि उनका बेटा जिंदा है। (पूरी स्टोरी पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें)
संडे बिग स्टोरी के बाकी एपिसोड यहां देखें :
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