राजस्थान में जयपुर की पतंगबाजी का क्रेज सबसे अलग है। मकर संक्रांति की सुबह से यहां की छतों पर वो काटा...वो मारा... की आवाज गूंजने लगती हैं। जयपुर में पतंगबाजी का कनेक्शन नवाबों के शहर यूपी के लखनऊ से जुड़ा है। पतंगबाजी का इतिहास करीब 150 साल पुराना बताया जाता है।
इतिहासकारों के मुताबिक जयपुर राजघराने के महाराजा सवाई जय सिंह के बेटे महाराजा राम सिंह द्वितीय (1835-1880 ई.) सबसे पहले पहले लखनऊ से पतंग लेकर आए थे। लखनऊ से आई पतंग 'तुक्कल' थी, यानि कपड़े से विशेष तरीके से बनाई जाती थी।
महाराजा रामसिंह द्वितीय को पतंगबाजी का इतना शौक था कि उन्होंने जयपुर रियासत में 36 कारखाने खोले थे। इनमें पहला कारखाना पतंग का भी था, इसे पतंगखाना नाम दिया गया। उन्होंने पतंगबाजों और पतंगकारों को अपने राज में जगह दी। तभी से जयपुर के कई मोहल्लों में पतंग बनाने का काम शुरू हुआ। तितली के आकार की विशाल पतंगें 'तुक्कल" बनाई जाने लगीं। लखनऊ से पतंग बनाने वाले और डोर सूतने वाले महाराजा रामसिंह के जमाने से यहां आते थे।
तुक्कल कटने या टूटने पर घुड़सवार दौड़ते थे
सिटी पैलेस के क्यूरेटर रामकृष्ण शर्मा के मुताबिक महाराजा रामसिंह द्वितीय तुक्कल उड़ाया करते थे। तुक्कल कटने या टूटने पर दूर तक चली जाती थी। इसे वापस लाने के लिए पहले से तैयार घुड़सवारों को दौड़ाया जाता था। 150 साल पहले बड़ी चर्खियों से आदमकद के तुक्कल उड़ाए जाते थे। राजपरिवार अपने महल के में पतंग महोत्सव शुरू करने लगा था। महल में एक कोठरी सिर्फ पतंगों से भरी रहती थी। पतंगबाजी के इस शौक को महाराजा माधोसिंह द्वितीय ने भी जारी रखा। आज भी महाराजा रामसिंह द्वितीय के पतंग और चरखियां जयपुर के सिटी पैलेस म्यूजियम में सुरक्षित रखे हैं, जो मकर संक्रांति पर यहां आने वाले पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहते हैं।
आजादी से पहले जलमहल और लाल डूंगरी में होती थी पतंगबाजी
आजादी के पहले जयपुर में आमेर रोड पर जलमहल और लालडूंगरी के मैदान में पतंगबाजी के मुकाबले होते थे। कई राज्यों से पतंगबाज इसमें हिस्सा लेते थे। जयपुर के प्रसिद्ध पतंगबाज मजीद खान, कन्हैयालाल सहित कई लोगों ने इन दंगल में अहम भूमिका निभाई। पतंगबाज शौकत हुसैन पतंगबाजी में निर्णायक की भूमिका में होते थे। महाकवि बिहारी और सवाई जयसिंह के कवि बखतराम ने भी आमेर में पतंग उड़ाने का वर्णन किया है।
मकर संक्रांति की शाम सुनाया जाता था जयपुर का भविष्य
इतिहासकार सियाशरण लश्करी बताते हैं कि मकर संक्रान्ति को दिनभर पतंगबाजी और दानपुण्य के बाद शाम को शहर के चांदपोल में जयपुर के वार्षिक ज्योतिष की घोषणा की जाती थी। यहां गोविंदराव जी के रास्ते के नुक्कड़ पर भविष्य फल बताने वाले ज्योतिषी जुटा करते थे। यह परंपरा सवाई जयसिंह द्वितीय के शासनकाल में शुरू हुई।
जयपुर के इतिहास से जुड़े देवेंद्र कुमार भगत के अनुसार महाराजा रामसिंह चंद्रमहल की छत से बड़ी-बड़ी पतंग 'तुक्कल' उड़ाया करते थे। ये तुक्कल कपड़े से बने आदम कद के पतंग होती थी। इनके पैरों में चांदी की छोटी-छोटी घुंघरियां लटकी रहती थी। भट्ट मथुरादास शास्त्री ने अपने 'जयपुर वैभवम' में मकर संक्रांति का भी जिक्र किया है।
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