कृष्णभक्ति की बात हो तो मारवाड़ की एक बेटी और बहू जैसे भक्त विरले ही मिलते हैं। जोधपुर के संस्थापक राव जोधा के एक पुत्र दूदाजी भी थे। दूदाजी ने मेड़ता को अपनी कर्मस्थली बनाया था। उन्हीं की पौत्री थी मीराबाई, जो कि कृष्णभक्ति पर्याय मानी जाती हैं। दूदाजी के पुत्र रतनसिंह की पुत्री थी मीराबाई, जिन्होंने बचपन से श्रीकृष्ण की भक्ति की राह चुनी। हालांकि सांसारिक जीवन में उनका विवाह मेवाड़ के राणा सांगा के पुत्र भोजराज से हुआ।
विवाह के कुछ साल बाद ही मीराबाई के पति भोजराज की मृत्यु हो गई, लेकिन वे तो पहले ही कह चुकी थीं- मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा ना कोई। पति की मौत के बाद मीरा को भी भोजराज के साथ सती करने का प्रयास किया गया, लेकिन उन्होंने कृष्णभक्ति में ही जीवन बिताने की राह चुनी। इसके बाद मीरा वृंदावन और फिर द्वारिका चली गईं। वहां जाकर मीरा ने कृष्ण भक्ति की।
इसी प्रकार 20वीं शताब्दी की शुरुआत में मारवाड़ राजपरिवार की बहू बनी उमराव कंवर ने भी अपना पूरा जीवन कृष्णभक्ति में ही गुजारा। मेहरानगढ़ म्यूजियम ट्रस्ट के डायरेक्टर करणीसिंह ने बताया कि सोइंतरा ठाकुर की पुत्री उमराव कंवर का विवाह मारवाड़ के तत्कालीन महाराजा सुमेरसिंह से हुआ था। उनकी रानी उमराव कंवर हरदम कृष्णभक्ति में लीन रहतीं।
महाराजा सुमेरसिंह का वर्ष 1918 में 20 की आयु में ही निधन हो गया था। रानी ने गिरधर गोपाल की भक्ति की राह पकड़े रखी। ट्रस्ट के डॉ. महेंद्रसिंह तंवर के अनुसार- उन्होंने सरदारपुरा में 1932 में श्रीकृष्ण मंदिर का निर्माण करवाया। यह मंदिर आगे चलकर चौहानजी का मंदिर एवं रानीजी का मंदिर नाम से विख्यात हुआ। यहां उन्होंने कृष्णभक्तों एवं राहगीरों के ठहरने की व्यवस्था भी करवाई।
बाद में वे वृंदावन चली गईं। वहां भी उन्होंने कृष्ण मंदिर का निर्माण करवाया। जीवनपर्यंत वहीं श्याम भक्ति में रहते हुए उन्होंने श्रीचरणों में ही अंतिम सांस ली। मेहरानगढ़ में श्रीकृष्ण मंदिर, श्रीनाथजी की 300 साल पुरानी पेंटिंग- मेहरानगढ़ में प्राचीन मुरली मनोहर मंदिर भी है। इसके साथ ही फूलमहल में तकरीबन 300 वर्ष पुरानी श्रीनाथजी की पेंटिंग भी बनी हुई है।
...ताे आज चाैपासनी में हाेते नाथद्वारा के श्रीनाथजी
नाथद्वारा श्रीनाथजी मंदिर का इतिहास भी जोधपुर से जुड़ा है। 17वीं शताब्दी में नाथद्वारा मंदिर बनने से पहले श्रीनाथजी की मूर्ति को जोधपुर लाया गया था, लेकिन फिर मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा राजसिंह के अनुरोध पर मूर्ति को वहां स्थापित किया गया। दरअसल, मुगल शासक औरंगजेब ने मंदिरों काे तोड़ने का आदेश दिया था। तब गोवर्धन पर्वत स्थित श्रीनाथजी की मूर्ति काे काेई नुकसान न हाे, इसलिए पुजारी दामोदरदास बैरागी मूर्ति को बैलगाड़ी में ले रवाना हो गए।
उन्होंने कई राजाओं से मांग की कि श्रीनाथजी मंदिर बनाकर मूर्ति स्थापित करा दें, लेकिन डर से कोई आगे नहीं आया। अंतत: मेवाड़ के महाराणा राजसिंह ने औरंगजेब को चुनौती दी कि वे मंदिर स्थापित करेंगे। इसी दौरान पुजारी मूर्ति लेकर जोधपुर के चौपासनी गांव पहुंचे। यहां कई महीने बैलगाड़ी में ही श्रीनाथजी की उपासना होती रही।
उस समय महाराजा जसवंत सिंह जाेधपुर के शासक थे। तब जसवंत सिंह का देहांत हाे गया। अगर ऐसा नहीं हाेता ताे श्रीनाथजी चौपासनी में ही रहते। जोधपुर में जिस स्थान पर वह बैलगाड़ी खड़ी थी, वहां श्रीनाथजी की अन्य मूर्ति स्थापित कर मंदिर बनाया गया, जिसका पूजन वल्लभ सम्प्रदाय की परम्परानुसार किया जा रहा है।
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