इस समय देश के केंद्र में राजस्थान की राजनीति है। इस राजनीति के केंद्र में हैं अशोक गहलोत और सचिन पायलट।
चर्चा थी अशोक गहलोत के कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद राजस्थान के मुख्यमंत्री की कमान सचिन पायलट को सौंपी जाएगी। कांग्रेस आलाकमान को ये एक लाइन में लिखी हुई बात जितनी आसान लग रही थी, उतनी थी नहीं।
45 साल के सचिन पायलट के लिए कभी भी कुछ आसान नहीं रहा…
पिता की एक्सीडेंट में मौत के बाद कम उम्र में राजनीति में आ गए…
अपनी प्रेम कहानी को शादी तक पहुंचाने के लिए विरोध का सामना करना पड़ा।
2018 में भी CM बनना चाहते थे, लेकिन नहीं बन पाए।
पढ़िए- कैसे एक मोटर कंपनी में काम करने वाले सचिन बने राजनीति के पायलट...
22 की उम्र में पिता को खो दिया
11 जून 2000...सचिन पायलट की उम्र 22 साल थी, जब जयपुर में हुए एक सड़क हादसे में उन्होंने अपने पिता को खो दिया। यही वो समय था कि जब उन्होंने राजस्थान की राजनीति में एंट्री ली।
2004 में 26 साल की उम्र में लोकसभा चुनाव जीतकर सबसे कम उम्र के सांसद बने। इसी साल राहुल गांधी भी पहली बार सांसद बनकर लोकसभा पहुंचे थे। यहां दोनों में दोस्ती हुई। दोनों को कई मौकों पर एक साथ देखा जाता था।
मनमोहन सरकार के दौरान 2012 से 2014 में केन्द्रीय संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रहे। 2013 विधानसभा चुनाव में राजस्थान में कांग्रेस को बड़ी हार मिली। 2014 लोकसभा चुनाव में सचिन हार गए थे। इसके बाद पार्टी के अध्यक्ष बनाए गए।
सचिन पायलट से शादी के खिलाफ था सारा का परिवार
सचिन पायलट की प्रेम कहानी पूरी तरह फिल्मी है। सचिन अमेरिका की पेंसिलवानिया यूनिवर्सिटी के व्हॉर्टन स्कूल में थे, जब उनकी मुलाकात जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की बहन सारा से हुई।
मुलाकात पहले दोस्ती और फिर प्यार में बदल गई। दोनों शादी करना चाहते थे। सचिन ने तो अपने परिवार को शादी के लिए तैयार कर लिया, लेकिन सारा का परिवार विरोध में था।
दोनों ने जनवरी 2004 में शादी की। अब्दुल्ला परिवार ने शादी को मान्यता देने से ही इनकार कर दिया।
शादी के कुछ महीनों बाद ही सचिन राजनीति के मैदान में उतरे और महज 26 साल की उम्र में दौसा से पहला लोकसभा चुनाव लड़कर बड़े अंतर से जीतकर सबसे युवा सांसद बने। इसके कुछ समय बाद अब्दुल्ला परिवार ने भी नाराजगी भुलाकर सचिन पायलट को अपने दामाद के रूप में स्वीकार कर लिया।
यूपी में जन्मे सचिन को कैसे मिली सियासी जमीन और नाम
यूपी के गाजियाबाद जिले के वेदपुरा में जन्मे राजेश पायलट का परिवार राजस्थान के बड़े नामों में से है। राजेश पायलट ने अपना जीवन दूध बेचने से शुरू किया और बाद में एयरफोर्स में पायलट हो गए। पायलट परिवार की राजनीतिक शुरुआत की कहानी बेहद खास है।
साल 1980 के लोकसभा चुनाव के वक्त राजेश पायलट ने बागपत से चुनाव लड़ने का मन बनाया। एयरफोर्स के पायलट राजेश ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को इस्तीफा दिया और दिल्ली के वेलिंग्टन क्रिसेंट स्थित 12 नंबर कोठी में इंदिरा गांधी से मिलने पहुंचे। इंदिरा गांधी के पैर छूकर राजेश पायलट ने कहा,'मैडम, मैं बागपत से लोकसभा चुनाव लड़ना चाहता हूं।'
इंदिरा गांधी ने चश्मा उतारकर पायलट को आश्चर्य वाली नजर से देखा। तुम्हें पता है क्या बोल रहे हो? इंदिरा ने सवालिया नजर से ये पूछा। पायलट ने कहा- जी मैडम। इंदिरा ने फिर कहा, 'बागपत से दिग्गज किसान नेता चौधरी चरण सिंह चुनाव लड़ते हैं। क्या बात कर रहे हो तुम? करियर का सोचो, जिस नौकरी में हो उसकी तनख्वाह अच्छी है। चुनाव लड़कर क्या होगा?' राजेश पायलट ने जवाब में कहा- मैडम, इस्तीफा देकर आ रहा हूं। आपका आशीर्वाद चाहिए। इंदिरा ने बात स्वीकार कर ली।
इंदिरा गांधी के कहने पर मिला पायलट नाम
राजेश पायलट का असली नाम राजेश्वर बिधूड़ी था। इंदिरा गांधी के कहने पर संजय गांधी ने राजेश्वर बिधूड़ी को राजेश पायलट का नाम देकर राजस्थान के भरतपुर में चुनाव लड़ने भेजा। ये वो इलाका था जो यूपी की सीमा से सटा हुआ था। राजस्थान का ये क्षेत्र पायलट के लिए नया था।
हालत ये थी कि राजेश पायलट जब भरतपुर उतरे तो स्थानीय कांग्रेस के लोगों ने उन्हें पहचाना तक नहीं। राजेश पायलट से कार्यकर्ताओं ने कहा- आप कौन हैं। हमें राजेश्वर बिधूड़ी नहीं, राजेश पायलट का प्रचार करने को कहा गया है। पायलट ने ये बात संजय गांधी को बताई। संजय ने उन्हें मशविरा दिया कि वो कचहरी जाकर एक हलफनामा दे आएं और भरतपुर से नामांकन करें।
जहां कभी दूध बेचा था, वहां मंत्री बनकर रहने पहुंचे
दिल्ली में देश की संसद के पीछे गुरुद्वारा रकाबगंज रोड बनी हुई थी। राजेश अपने एक रिश्तेदार के साथ इसी सड़क की 12 नंबर की कोठी में सर्वेंट क्वॉटर्स में रहा करते थे। राजेश ने अपने शुरुआती दिनों में यहां और लुटियंस दिल्ली की तमाम अन्य कोठियों में दूध बेचा। बाद में जब वे मंत्री बने तो वहां आधिकारिक रूप से रहने भी पहुंचे।
राजनीति सोने का कटोरा नहीं
राजनीति में आने को लेकर एक बार मीडिया से बात करते हुए पायलट ने कहा था, पिता से मैंने कभी अपने राजनीतिक सफर के बारे में बात नहीं की, लेकिन उनके निधन के बाद जिंदगी एकदम बदल गई थी।
राजनीति मेरे ऊपर थोपी नहीं गई है, मैंने जो कुछ भी सीखा उसके दम पर सिस्टम में एक बदलाव लाना चाहता हूं। पायलट ने कहा था, राजनीति कोई सोने का कटोरा नहीं है, जिसे कोई आगे बढ़ा देगा। इस क्षेत्र में आपको अपनी जगह खुद बनानी होती है।
विधानसभा चुनाव से पहले शुरू हुआ विवाद
यह नियम होता है कि AICC की टिकट बांटने वाली कमेटी में शामिल नहीं हो सकता, लेकिन अशोक गहलोत ने परंपरा तोड़ दी और टिकट बंटवारे में शामिल हो गए।
बताया जाता है कि दोनों के बीच तनाव यही से शुरू हुआ। 200 में से 80 टिकट अशोक गहलोत के खाते में और सचिन पायलट के खाते में 50 के आसपास टिकट आए। बाकी टिकट अन्य क्षेत्रों के समीकरण साधने के हिसाब के लिए बांटे गए।
कांग्रेस को 200 में 100 सीटें मिली। पायलट के कई करीबी चुनाव हार गए और बाजी पलट गई। सरकार बनाने के लिए एक विधायक की जरूरत थी। अशोक गहलोत ने 13 निर्दलीय और राष्ट्रीय लोकदल के विधायक के साथ कांग्रेस आलाकमान को अपनी ताकत दिखाई।
जब पायलट को विधानसभा गेट पर रोक दिया गया
पहली बार उपमुख्यमंत्री बनने के बाद जब विधानसभा शुरू हुई तो उन्हें विधानसभा गेट पर रोक दिया गया। कारण था वे राजस्थान विधानसभा में मुख्य द्वार आए थे। ये वो गेट है, जहां से केवल राज्यपाल, विधानसभा अध्यक्ष और मुख्यमंत्री आते हैं। एक दिन तो उन्हें एंट्री दे दी गई, लेकिन दूसरे दिए विधानसभा के मास्टर ने उन्हें रोक दिया। पायलट जिद पर अड़ गए कि वे इसी रास्ते से आएंगे। इस पर अशोक गहलोत ने उन्हें आगंतुकों के रास्ते का कहा गया। यानी न तो वे मुख्यमंत्री के रास्ते से आएंगे और न ही मंत्रियों के रास्ते से, उन्हें दूसरी ही एंट्री दी गई।
खुद की सरकार को कई बार घेर चुके
कोटा के जेके लोन में हुई बच्चों की मौत के मामले में पायटल ने स्टैंड लिया और खुद की सरकार को घेरा। उन्होंने कहा थाा– हम सरकार में आ चुके हैं और पिछली सरकार की गलतियों को गिनाकर बच नहीं सकते हैं। इसके बाद वे अस्पताल पहुंचे और यहां भी मीडिया से बातचीत के दौरान सरकार को घेरा। इसके अलावा नागौर में एक दलित युवक की पिटाई का वीडियो सामने आने के बाद पायलट ने प्रदेश कांग्रेस की जांच कमेटी बनाई।
फिर आया बगावत का समय
अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच 2018 के विधानसभा चुनाव से चल रहा टकराव सरकार बनने के बाद भी नहीं थमा। जुलाई 2020 में पायलट ने बगावती तेवर दिखा दिए। वह विधायकों को लेकर हरियाणा के मानेसर चले गए। गहलोत अपनी सरकार बचाने में सफल हो गए, लेकिन पायलट को प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री के पद से हटा दिया गया। 14 जुलाई 2020 के बाद से पायलट सिर्फ एक विधायक की भूमिका में हैं। अब एक बार फिर उनके मुख्यमंत्री बनने की चर्चा हो रही है। हालांकि, गहलोत आज भी उनके विरोध में बताए जा रहे हैं।
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इन हालात के बाद सवाल उठने लगा है कि क्या...
अब गांधी परिवार अशोक गहलोत को अध्यक्ष के पद पर बैठाएगा?
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