इन्हीं लोगों ने..., इन्हीं लोगों ने...
इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा...
1972 में आई एक्ट्रेस मीना कुमारी की फिल्म पाकीजा का गाना सभी को याद है, लेकिन इस गाने में जो दुपट्टा इस्तेमाल किया गया उसके बारे में कम ही लोग जानते हैं। जो कभी राजपरिवारों में इस्तेमाल किया जाता था। अपनी कारीगरी के लिए आज भी खास पहचान रखता है।
हम बात कर रहे हैं चंदेरी वर्क की। आज इस कारीगरी से बड़ी संख्या में साड़ियां बनाई जाती हैं। इस साड़ी से जुड़ा एक रोचक किस्सा भी है, जो जयपुर राजघराने से जुड़ा है। दरअसल, जयपुर की महारानी गायत्री देवी के लिए जब चंदेरी की साड़ी तैयार की जाती तो दो गार्ड तैनात किए जाते थे। वो इसलिए कि कोई इस साड़ी को देख न सके।
मध्य प्रदेश बुंदेलखंड क्षेत्र के अशोकनगर जिले से 65 किलोमीटर दूर बेतवा नदी के पास पहाड़ी, झीलों और जंगलों से घिरे चंदेरी कस्बे में आज भी हाथ से साड़ियां बनाई जाती हैं। ये दुनियाभर में मशहूर हैं।
चंदेरी के कारीगर सोहेल खलीफा जयपुर की एक प्रदर्शनी में पहुंचे। वह राष्ट्रपति अवॉर्डी अब्दुल हकीम खलीफा की तीसरी पीढ़ी से हैं। अब्दुल हकीम खलीफा ने ही मीना कुमारी के लिए दुपट्टा बनाया था, जिस पर 3500 अशर्फी बूटियां बनाई गई थीं।
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चंदेरी दुपट्टे से साड़ी का सफर
सोहेल ने बताया- दादाजी अब्दुल हकीम ने मीना कुमारी के लिए दुपट्टा तैयार किया था, इस पर उन्होंने अशर्फी के आकार की डिजाइन बनाई। एक डिजाइन पर तीन मिनट रुकना पड़ता था। इतना बारीक काम होता था कि एक-एक धागे को बड़ी बारीकी के साथ आगे बढ़ाया जाता था। मीना कुमारी की वजह से इस दुपट्टे ने रिकॉर्ड बनाया। मध्यप्रदेश सहित देशभर में इसकी मांग बढ़ गई। फिर यही दुपट्टा साड़ी के रूप में आया। यह आज भी सबसे ज्यादा लोकप्रिय है।
उन्होंने बताया- 100 साल पहले चंदेरी राजघरानों के लिए थी। साल 1942 में यह आम लोगों की पहुंच में आई। फिल्मों के जरिए चंदेरी की साड़ियों को काफी लोकप्रियता मिली। गायिका शमशाद बेगम ने सबसे ज्यादा हैंडिक्राफ्ट को प्रमोट करने का काम किया।
वे जिस फिल्म से जुड़तीं, फिल्ममेकर से शूटिंग में हैंडीक्राफ्ट साड़ियों और कपड़ों के इस्तेमाल करने पर पहल करतीं। शमशाद बेगम के गाने मलमल के कुर्ते पर छीट लाल-लाल, मेरे पिया गए रंगून, वहां से किया टेलीफोन गाने में भी चंदेरी को दिखाया गया है।
सोहेल ने बताया- सुई धागा फिल्म की शूटिंग के लिए अनुष्का शर्मा चंदेरी आई थीं। उनके लिए हमने चंदेरी के एक किले की मीनार का डिजाइन बनाया था। उस साड़ी पर करवा वर्क में मीनार बनाई गई थी, जो उन्होंने काफी पसंद आया। श्रीदेवी के लिए भी एक साड़ी बनाई थी, जिसे उन्होंने एक फंक्शन में पहना था। यह भी काफी लोकप्रिय हुई।
गायत्री देवी को पसंद थी चंदेरी, ढाका से आता था धागा
सोहेल ने बताया- जयपुर पूर्व राजघराने की गायत्री देवी को चंदेरी की साड़ियां बहुत पंसद थीं। उनकी साड़ियां मशलीन धागे से बनती थी। उस समय ये धागा ढाका (बांग्लादेश) से आया करता था। जब गायत्री देवी की साड़ियों की बुनाई होती थी, दो सैनिक पूरे वक्त पहरा देते थे। ताकि उन साड़ियों को कोई दूसरा देख न सके।
इसमें एक सैनिक जयपुर से आया करता था। साड़ी बनाने वाले कारीगर के सामने हथियार के साथ पहरा देता था। इस साड़ी को पूरी सुरक्षा के साथ जयपुर भेजा जाता था। बाद में मशलीन धागे वाली चंदेरी साड़ियां गायत्री देवी डिजाइन के नाम से प्रसिद्ध हुई।
आज भी लगता काला टीका
बच्चों को बुरी नजर से बचाने के लिए काजल का टीका लगाने की परंपरा सदियों पुरानी है। उसी तरह काजल का ऐसा ही टीका चंदेरी साड़ियों पर भी लगता है। चंदेरी साड़ियों में हर एक मीटर की दूरी पर कारीगर काला टीका लगाते हैं।
सोहेल ने बताया कि काला टीका इसलिए लगाया जाता है क्योंकि साड़ी बनकर तैयार महिला को नजर न लगे। पहले तो यह टीका मोटा और दिखता हुआ होता था, लेकिन आजकल इसकी साइज छोटी हो गई है। वजह है कि कस्टमर को लगता है कि साड़ी पर दाग लगा है। हालांकि, इसे छोटा करते हुए आज भी काला टीका लगाने की परंपरा जारी है।
1305 से है चंदेरी की इतिहास
मध्यप्रदेश मृगनयनी उत्सव के प्रदर्शनी अधिकारी एमएल शर्मा ने बताया कि चंदेरी के बुनकरों का उल्लेख 1305 में अलाउद्दीन खिलजी के आगमन से रहा है। इस दौरान लगभग 20 हजार बुनकर मौलाना मजिबुद्दीन उलुफ के अनुयाइयों के रूप में ढाका से चंदेरी आए थे। लगभग 17वीं शताब्दी तक कपड़ा व्यवसाय में चंदेरी के सूती कपड़े की प्रतिस्पर्धा ढाका के मलमल के कपड़े से रही।
फिर 300 काउंट वाले सूती कपड़े की एक किस्म का ईजाद हुआ। यह कपड़ा एक स्थानीय जड़ कोलिकंडा से तैयार किया गया। चंदेरी की पहचान पाइपिंग किनार के रूप में भी की जाती है, जो कि आस्तीनों पर लगने वाले 24 ग्राम सूरत सिल्क की एक खास किस्म में बनी जरी की किनारी होती है।
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