साल 1996, चित्रकूट का पाठा इलाका। उन दिनों बीहड़ का सबसे खूंखार डकैत ददुआ जो कहता, लोग वही करते। बिना उसकी इजाजत सूदखोर जमीनों का सौदा नहीं करते। खौफ इतना कि किसान अपनी मर्जी से हल तक नहीं उठाते थे। मानिकपुर की पहाड़ियों से सटे सुखरामपुर, हरिजनपुर, दराई और कसेरउवा गांवों में ददुआ गैंग किसानों से जबरन तेंदू पत्ते की खेती करवाती। कोई मजदूरी मांगने जाता, तो उसे गाली मिलती।
दशकों तक जिस पाठा क्षेत्र के किसानों ने मजबूरी में सिर्फ तेंदू पत्ते उगाए। आज वही पठार केसर की खुशबू से गुलजार है। कभी डकैतों का गढ़ माने जाने वाले चित्रकूट के सुखरामपुर गांव में आज अमेरिकन केसर की खेती हो रही है। ये कारनामा कर दिखाया है यहां के किसान बबलू प्रसाद ने।
LLB पास बबलू दावा करते हैं कि उन्होंने इस खेती में केवल 50 हजार रुपए की लागत से 5 लाख रुपए की कमाई की। वो भी सिर्फ 6 महीने की फसल में। वह चित्रकूट में इकलौते ऐसे किसान हैं, जो केसर की खेती कर रहे हैं। हम लखनऊ से 300 किलोमीटर दूर 'केसर किंग' के खेत पर पहुंचे। वहां सुर्ख लाल फूलों से भरी केसर की फसल को करीब से देखा।
ननिहाल में मिला केसर की खेती का आइडिया
बबलू पहले तक गेहूं-चने की खेती करते थे। लेकिन सिंचाई के बढ़ते खर्च और अन्ना पशुओं से हुए नुकसान के कारण ये खेती उनके लिए घाटे के सौदा बनती जा रही थी। सितंबर, 2021 में वह एक पारिवारिक कार्यक्रम में अपने ननिहाल मध्यप्रदेश के पन्ना गए थे। वहां मामा के खेत पर लहलहाती केसर की फसल देख वह हैरान रह गए।
बबलू कहते हैं, "मामा के खेत से मुझे अमेरिकन केसर उगाने का आइडिया मिला। पता चला कि इस खेती में महज 5 से 6 महीने में फसल तैयार हो जाती है। पूरे सीजन में केवल 4 से 5 बार ही सिंचाई करनी पड़ती है। सबसे अच्छी बात ये है कि फसल कटते ही दिल्ली के व्यापारी खुद गांव आकर इसे हाथों-हाथ खरीद लेते हैं।"
दरअसल, केसर का पौधा पहाड़ी इलाकों में उगता है। इसे बढ़ने के लिए ठंडक की जरूरत होती। इसलिए मैदानी इलाकों में बारिश खत्म होने के बाद सितंबर-अक्टूबर से इसके बीज बोए गए। क्योंकि इस दौरान वातावरण में नमी रहती है। साथ ही हल्की सर्दी का मौसम शुरू हो जाता है। इसलिए ये समय अमेरिकन केसर की खेती के लिए सबसे सही माना जाता है।
मजाक-मजाक में शुरू की खेती, पहली फसल से लाखों कमा लिए
मध्यप्रदेश से चित्रकूट लौट कर बबलू ने सितंबर के आखिर में एक एक्सपेरिमेंट किया। जिस जगह पर वह चना बोते थे, उस 1 बीघा खेत में अमेरिकन केसर के 500 ग्राम बीज बो दिए। बुवाई के बाद मार्च के अंत में इसके फूल जब सुर्ख लाल हो गए, तो इसकी तुड़ाई की गई। पहली बार में 1 बीघा खेत से 5 किलो केसर की पैदावार मिली। जो उम्मीद से परे थी।
अमेरिकन केसर का फूल दिखाते हुए बबलू कहते हैं, "6 महीने की खेती में बुवाई के 90 दिन बाद पौधों में फूल आने शुरू हो जाते हैं। पहले इनका रंग हल्का हरा होता है। पकने के बाद ये धीरे-धीरे लाल रंग के होने लगते हैं। फूल में दाने तैयार हो जाएं, तो उनकी तुड़ाई कर लेनी चाहिए। सबसे ज्यादा ध्यान इस बात का रखना चाहिए कि तोड़े गए फूलों को खुले में न रखकर छाया में सुखाना चाहिए। उसके बाद बेचे जाने तक इन्हें पॉलिथीन में पैक करके रखना चाहिए।"
"इस समय अमेरिकन केसर का मार्केट प्राइस 1 लाख रुपए प्रति किलो है। यूपी में अभी इसका मार्केट नहीं है। हालांकि कोलकाता, पंजाब, हरियाणा, रुड़की और दिल्ली के खारी बावली और आजादपुर मंडी के व्यापारियों से संपर्क कर इसे अच्छे दाम पर बेचा जा सकता है। अमेरिकन केसर की कीमत को देखते हुए लोग इसे ‘लाल-सोना’ भी कहते हैं।"
न छुट्टा जानवरों का खतरा, न कीटनाशक का खर्च
अमेरिकन केसर की खेती में 2 बड़े फायदे हैं। पहला: इसमें कीटनाशकों और केमिकल फर्टिलाइजर की जरूरत नहीं पड़ती है। दूसरा: कंटीला पौधा होने की वजह से छुट्टा पशु इससे दूर रहते हैं।
बबलू के मुताबिक, गेहूं, धान और चने जैसी पारंपरिक फसलों में सबसे ज्यादा खर्च DAP-यूरिया और खाद खरीदने पर हो जाता है। लेकिन अमेरिकन केसर की खेती में किसी भी कीटनाशक का प्रयोग नहीं किया जाता। जैविक तरीके से गोबर की खाद डालकर ही अच्छी फसल तैयार हो जाती है। इससे खाद पर होने वाला खर्च सीधे-सीधे कम हो जाता है।
पाठा में केसर उगती देख हैरान रह गया कृषि विभाग
पाठा में केसर उगाने वाले किसान बबलू की तारीफ चित्रकूट का कृषि विभाग भी कर चुका है। अमेरिकन केसर की खेती देखने दूर-दराज के किसानों ने अलावा कृषि विभाग के अधिकारी भी समय-समय पर बबलू के खेत पर आते रहते हैं।
बबलू कहते हैं, "पिछले साल की तरह ही हमने इस बार 1 बीघा खेत में केसर बोया है। फसल पहले साल से भी बेहतर नजर आ रही है। उम्मीद है इस बार हमें 5 से किलो तक पैदावार मिल सकती है। हमारी खेती देखकर मानिकपुर, चित्रकूट, बांदा और हमीरपुर के 50 से ज्यादा किसान इसे सीखने आ चुके हैं। ये खेती ज्यादा पानी नहीं मांगती है, इसलिए ये बुंदेलखंड के किसानों के लिए फायदे का सौदा है।"
बुंदेलखंड में केसर की खेती पर मानिकपुर से SDM प्रमेश श्रीवास्तव कहते हैं, "जम्मू-कश्मीर जैसे पहाड़ी और ठंडे क्षेत्र में होने वाली केसर पठार में उग रही है। ये किसी करिश्मे से कम नहीं है। हमारी तहसील के सुखरामपुर के बबलू ने केसर की खेती की शुरुआत की है, इसकी रिपोर्ट शासन को भेजी जाएगी। ताकि ज्यादा से ज्यादा किसान लाभान्वित हो सकें।"
‘लाल-सोने’ ने बदल दी जिंदगी
साइकिल से चलने वाले बबलू ने अमेरिकन केसर की खेती की बदौलत नई मोटरसाइकिल खरीदी है। एक साल में उन्होंने अपने घर के आधे हिस्से को कच्चे से पक्का बना लिया है। अगले 2 साल में वह ट्रैक्टर खरीदने का प्लान बना रहे हैं।
घर की दहलीज में पड़े तख्त पर बैठे बबलू कहते हैं, "इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से वकालत पढ़ने के बाद कभी सपने में नहीं सोचा था कि एक दिन मैं केसर की खेती करूंगा। इस खेती ने मुझे पैसे से ज्यादा नाम दिया है। आस-पास के गांवों के लोग मुझे 'केसर-किंग' के नाम से भी बुलाते हैं।"
दिल के मरीजों के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं
अमेरिकन केसर की डिमांड मेडिकल फील्ड में भी काफी है। इसके बीजों से निकलने वाले तेल को सैफोन ऑयल कहते हैं। सैफोन ऑयल जो दिल की बीमारी वाले मरीजों को दिया जाता है। इसी ऑयल से सफौला तेल बनता है। इसमें कॉलोस्ट्रोल को कम करने वाले तत्व होते है। सैफोन आइल का उपयोग ब्लड शुगर को कंट्रोल करने में भी किया जाता है। साथ ही इसके बीजों से तेल निकालने के बाद बचने वाले अवशेष को दवाइयों के रूप में उपयोग किया जाता है।
लखनऊ स्थित KGMU के डॉक्टर सुमित कहते हैं, "अमेरिकन सैफ्रॉन में मौजूद 2 खास तत्व क्रॉकेटिन और एथेनॉल में एंटीडिप्रेसेंट गुण पाए जाते हैं। जो डिप्रेशन कम करने का काम करते हैं। यही कारण है कि ज्यादातर एंग्जाइटी व शारीरिक थकान मिटाने के लिए इस्तेमाल होने वाली दवाइयों में इसके एक्सट्रैक्ट (अर्क) का इस्तेमाल होता है। इसी वजह से अमेरिकन केसर ड्रग इंडस्ट्री के लिए मेजर कंपोनेंट है।"
आखिर में सुखरामपुर और ददुआ के बीच कनेक्शन को जान लेते हैं...
साल 2000 में सुखरामपुर में था ददुआ का आतंक, तेंदू पत्ता ठेकेदार थे निशाने पर
सुखरामपुर के किसान तेजपाल कहते हैं, "साल 1983 से 2000 तक पाठा के सुखरामपुर, कसेरुआ, हरिजनपुर और दराई ददुआ गैंग के गढ़ माने जाते थे। ददुआ यहीं से तेंदू के पत्ते का लाखों करोड़ों रुपए का व्यापर करता था। व्यापारी ठेका लेते थे। वह गांव के ही लोगों को मजदूर बनाकर तेंदू पत्ते तुड़वाता था। इन्हीं पत्तों से बीड़ी और दूसरी कई चीजें बनाकर यूपी और एमपी में बेची जाती थी। ददुआ ने ठेकेदारों के अंदर इतना खौफ भर दिया कि मांगने से पहले उस तक पैसा पहुंचाया जाने लगा था।"
ददुआ पाठा के गांवों में लगातार लूट, अपहरण और हत्याएं करता रहा। एक समय ऐसा आ गया था कि सारे ठेकेदार जंगल छोड़ भाग गए थे। ददुआ की इजाजत के बिना कोई एक तेंदू के पत्ते को भी हाथ नहीं लगा सकता था। किसान चाह कर भी उसकी शिकायत थाने पर नहीं करते थे। क्योंकि उस वक्त ददुआ की मुखबिरी का मतलब मौत होता था।
केसर से जुड़े कुछ फैक्ट्स
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लखनऊ से 40 किमी दूर मलिहाबाद में अब्दुल्ला नर्सरी है। इसमें एक ऐसा आम का पेड़ है। इसमें एक साथ 300 से ज्यादा किस्मों के आम निकलते हैं। हर किस्म का टेस्ट अलग होता है। पत्ते भी अलग हैं। आम के खास पेड़ को 83 साल के हाजी कलीमुल्लाह खान ने तैयार किया है। इस कारनामें के लिए उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया जा चुका है।
कलीमुल्लाह दावा करते हैं कि ये आम का पेड़ बीमारियां दूर करने में भी सक्षम है। 5 एकड़ में फैली अपनी नर्सरी में कलीमुल्लाह पेड़-पौधों पर शोध भी करते हैं। 7वीं फेल शोधकर्ता का नया दावा है कि उन्होंने एक ऐसा केले का पेड़ विकसित किया है, जो सामान्य पेड़ से डेढ़ गुना बड़ा है। इसका फल भी डेढ़ गुना बड़ा होगा। उन्होंने कहा, “ये पेड़ विकसित करने का फॉर्मूला पीएम नरेंद्र मोदी को दे कर जाउंगा।” पूरी खबर यहां पढ़ें...
मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में गंजबासौदा से करीब 40 किलोमीटर दूर त्योंदा तहसील। यहां के मैनवाड़ा गांव के रहने वाले 38 साल के किसान रविंद्र रघुवंशी ग्रीन गोल्ड की खेती को लेकर चर्चा में हैं। आप सोच रहे होंगे कि गोल्ड तो सुना था, ये ग्रीन गोल्ड क्या है? दरअसल, खेती किसानी की दुनिया में हरे बांस को 'ग्रीन गोल्ड' कहा जाता है, क्योंकि इसकी खेती से सोने जैसा ही प्रॉफिट होता है।
मौसम की बेरुखी से घबराए किसान अक्सर फसलों को लेकर चिंतित रहते हैं, लेकिन रविंद्र अपनी बांस की फसल को लेकर निश्चिंत हैं। क्योंकि उनके बांसों पर प्राकृतिक आपदा का प्रभाव नहीं पड़ता। वन विभाग द्वारा कृषि क्षेत्र में बांस की खेती को बढ़ावा देने की जानकारी मिलने के बाद उन्होंने यूट्यूब पर बांस की खेती के बारे में जानकारी जुटाई। वहीं, बड़वानी में बांस की खेती कर रहे उनके मित्र के जरिए उन्हें मदद मिली। उन्होंने इंदौर की कंपनी के जरिए 30 बीघा जमीन पर बांस के पौधे लगाए। पूरी खबर यहां पढ़ें...
सीतामढ़ी के रामपुर परोरी निवासी किसान मनोज कुमार इन दिनों इलाके भर में किसानों के प्रेरणा स्त्रोत बने हुए हैं। मनोज डुमरा प्रखंड के सतमचा गांव के लीज के 15 कट्ठा जमीन में पारंपरिक फसल को छोड़ एप्पल बेर जैसे नकदी फसल की खेती बीते चार वर्षों से कर रहे हैं। इससे उन्हें सलाना 3 से 4 लाख की कमाई हो रही है।
मनोज ने बताया कि पिता जयनारायण महतो की प्रेरणा से उन्होंने खेती करने की ठानी। परंतु पारंपरिक खेती से प्रायः नुकसान ही होता था। उन्होंने 4 वर्ष पूर्व अपने एक दोस्त के कहने पर बंगाल से 210 रुपए प्रति पौधे की दर से 400 पौधे मंगवाए। 15 कट्ठा जमीन में इसे लगाकर इसकी शुरुआत की थी। पूरी खबर यहां पढ़ें...
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