दिवाली के दूसरे दिन पुराने लखनऊ में शोरगुल तेज है। ये आवाजें रास्तों से नहीं बल्कि घर की छतों से आ रही हैं। ऊपर आसमान में पतंगें लड़ रही हैं, नीचे बच्चे जोर से चिल्ला रहे हैं ..."वो काटा"।
परेवा यानी कि जमघट के दिन लखनऊ में जमकर पतंगबाजी होती है। कोई मस्ती में पतंग उड़ाता है, तो कहीं पेंच लड़ाने के लिए हजारों की बाजियां तक लग जाती हैं। पतंगबाजी का ये चलन आज का नहीं, बल्कि 250 साल पुराना है। चलिए, आपको पतंगों की दुनिया में ले चलते हैं...
लखनऊ में बीते 25 साल से पतंग बना रहे कारीगर किशन कश्यप कहते हैं, "नवाब वजीर असफ-उद-दौला के दौर में लखनऊ की पहचान कहा जाने वाला रूमी दरवाजा बना। शानदार इमारतें बनवाने के अलावा नवाब को पतंग उड़ाने का भी शौक था। वह 'झुल-झुल पतंग' उड़ाते थे, जिसमें सोना-चांदी जड़े रहते थे।"
दिवाली पर खासतौर से वे झुल-झुल पतंग उड़ाते थे। पतंग कट कर जिस किसी के घर में गिरती, उसके परिवार की दिवाली का खर्च निकल जाता था। पतंग लूटने वाले को 5 रुपए इनाम मिलता था। अवध क्षेत्र में पतंगबाजी की शुरुआत भी नवाब असफ-उद-दौला ने की थी। समय के साथ सिर्फ एक चीज ही बदली है। अब दिवाली की अगली सुबह लखनऊ में पतंगें उड़ाई जाती हैं।
देवेंद्र लखनऊ में साल 1978 से पतंग और मांझे की दुकान चला रहे हैं। साल 2000 तक वह पतंगों को फुटकर बेचा करते थे, लेकिन अब थोक विक्रेता हैं। लखनऊ की पतंगबाजी पर देवेंद्र गुप्ता कहते हैं," पुराने लखनऊ के यहियागंज, नक्खास, सआदतगंज, चौक और हुसैनगंज सहित कई इलाकों में 50 से ज्यादा छोटे-बड़े कारखानों में पतंग तैयार की जाती हैं। यहां घरों में महिलाएं पतंग बनाने का काम करती हैं। हर कारखाने पर डेली 100 से 200 पतंग तैयार की जाती हैं।"
पतंगबाजी के लिए 3 चीज़ें बेहद जरूरी हैं। पहली: अच्छी पतंग, दूसरी: मजबूत मांझा और तीसरी: सुंदर चरखी। इन तीनों चीजों की अलग-अलग खासियत हैं। लखनऊ में बनी पतंग सबसे अच्छी होती है। मांझा बरेली का मशहूर है और चरखी जयपुर की। आइए इन 3 चीजों की और अच्छे से जानते हैं...
1. फुन्नेदार पतंग
2. पौना पतंग
3. अध्धी पतंग
4. प्रिंटेड पतंग
तीन तरह का होता है मांझा
पतंगबाजी के लिए इस्तेमाल होने वाला मांझा बरेली में बनाया जाता है। इसे बनाने के लिए चावल का पेस्ट और बारीक पिसा हुआ कांच इस्तेमाल होता है। मांझा बनने के बाद इसे केमिकल से रंगीन बनाया जाता है। पुराने लखनऊ के पतंगबाज मो. इकबाल कहते हैं, “अच्छे मांझे की पहचान उसके बनाने वाले कारीगर से होती है। बरेली का शाकिर स्टाक मांझा, NRK मांझा और हसीन भाई-लल्ला भाई का मांझा खूब बिकता है।”
दिलखनऊदिल्ली नहीं।”
चरखी दो तरह से बिकती हैं। एक- खाली चरखी, दूसरी- मांझा भरी चरखी। खाली चरखी का रेट 10 रुपए से 500 रुपए तक होता है। वहीं भरी चरखी 2000 रुपए तक बिकती है। अच्छे पतंगबाज जयपुर की चरखी को पसंद करते हैं।
यहां तक आपने पतंगबाजों के पहचान मानी जाने वाली 3 चीजों के बारे में जाना। आइए अब लखनऊ के पुराने पतंगबाजों की बात सुनाते हैं...
लखनऊ के यहियागंज इलाके के रहने वाले उमेश बताते हैं, "दीपावली के दिन हम सब पतंग खरीदकर उनकी पूजा करते हैं। दूसरे दिन सुबह 9 बजे से जब तक अंधेरा नहीं हो जाता, तब तक पतंगबाजी चलती है। अवध में अलग से पतंगबाजी के क्लब भी हैं। इनके लोग दूर-दूर तक पतंग उड़ाने जाने जाते हैं। गुजरात में काइट फेस्टिवल में भी इन्हें पतंग उड़ाने के लिए बुलाया जाता है।"
आशियाना काइट क्लब, राजेंद्र नगर काइट क्लब, डालीगंज काइट क्लब, स्पीड काइट क्लब और आलमबाग काइट क्लब लखनऊ के मशहूर पतंगबाजी क्लब हैं।
'लूटकर पतंग उड़ाने की खुशी से बढ़िया कुछ नहीं'
डालीगंज के पतंगबाज मो. शमीम बताते हैं, "जमघट के दिन बहुत लोग महंगी-महंगी पतंग खरीदकर उड़ाते हैं। लेकिन जो मजा लूटी गई पतंग को उड़ाने में है, वो खरीदकर नहीं मिलता। हमारे डालीगंज में लूटने के दौरान भले ही पतंग फट जाए, लेकिन आखिर में जो भी पतंग पाता है पीठ उसी की थपथपाई जाती है।"
पतंगबाजी पर शमीम मुस्कुराते हुए आगे कहते हैं, “लखनऊ की पतंग, बरेली का मांझा जिसके पास है, वही पक्का पतंगबाज है।”
पतंग के कारोबार में शामिल हैं 400 लोग, सालाना 4 करोड़ का कारोबार
लखनऊ पतंग विक्रेता एसोसिएशन के मुताबिक, पतंग के कारोबार में कारीगर, सप्लायर और होल सेलर्स को मिलाकर कुछ 400 से ज्यादा लोग शामिल हैं। यहां पर बनी पतंगें बरेली, बनारस, रायबरेली, कानपुर, प्रयागराज और झांसी में सप्लाई होती है।
यूपी के बाहर एमपी, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में भी सप्लाई होती है। यहां पतंग का सालाना कारोबार करीब 4 करोड़ रुपए का है।
अब…
पतंग के जुड़ी कहानियों का दौर यहीं खत्म होता है, आखिर में मशहूर शायर नजीर अकबराबादी के इस खूबसूरत शेर से विदा लेते हैं...
मैं हूं पतंग-ए-कागजी, डोर है उस के हाथ में
चाहा इधर घटा दिया, चाहा उधर बढ़ा दिया।
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