नवाबी ठाठ वाले लखनऊ ने बदलाव के कई दौर देखे हैं, पर 200 साल से भी पुराना एक स्वाद है जो आज भी बरकरार है। लखनऊ की रियासत के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह भी इसके मुरीद थे। अवध क्षेत्र का तख्त कहे जाने वाले लखनऊ के चौक पर आज भी 50 से ज्यादा दुकानें मौजूद हैं, जहां बनती है रूई से भी हल्की मिठाई।
दिल्ली वाले इसे 'दौलत की चाट' कहते हैं। ठेठ बनारसिया इसे 'मलइयो' नाम से पुकारते हैं। आगरा में ‘16 मजे’ और लखनऊ में आकर ये 'मक्खन-मलाई' बन जाती है।
नवाब को पसंद था मक्खन-मलाई का दूध
लखनऊ के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह खाने के बेहद शौकीन थे। दूध से बनी कलाकंद और मिठाइयां उन्हें खास पसंद थी। लखनऊ में मक्खन-मलाई बनाने वाले सबसे पुराने कारीगर गया प्रसाद लोगों को नवाबों के किस्से सुनाकर मक्खन खिलाते थे।
गया प्रसाद कहते थे- मक्खन-मलाई का चलन लखनऊ के आखिरी नवाब की ही देन है। वो सुबह के नाश्ते में मक्खन-मलाई खाते थे। इसे खाने के बाद वो इसका दूध भी पीते थे। दरअसल, इसका दूध मक्खन से गले में होने वाली चिकनाहट को खत्म करने का काम करता है।
नवाबी टेस्ट को गया प्रसाद ने बना दिया मॉडर्न स्वीट ब्रांड
गया प्रसाद मक्खन वाले दुकान के मालिक बृजेश कहते हैं, “मक्खन मलाई बनाने वाले कारीगर अब नाम मात्र के बचे हैं। इसलिए ये मिठाई बहुत पॉपुलर नहीं हो पाई। सन 1965 में चौक पर हमारे पिता जी (गया प्रसाद) की इकलौती दुकान थी,जहां लोग मक्खन-मलाई खाने आते थे। उनसे सीख कर यहां के 150 से ज्यादा लोग इस मिठाई के कारोबार में जुड़ गए हैं।”
बृजेश कहते हैं, “मक्खन मलाई को बनाने का तरीका समय, संयम और सुकून मांगता है। रात 2:30 बजे से लेकर सुबह 4 बजे तक दूध को झाग बनने तक मथानी से फेटा जाता है। फिर इसे सर्दी की सुबह में गिरने वाली ओस में रखा जाता है। ओस की नमी से झाग फूल जाता है, जो इसके स्वाद को बढ़ाने का काम करता है।”
मलाई-मक्खन बनाने का खास तरीका हमें दुकानदार बृजेश ने बताया। आइए ग्राफिक के जरिए इसे जानते हैं...
नवंबर की ठंड से होलिका दहन तक बिकती है खास मिठाई
गया प्रसाद के छोटे बेटे जितेंद्र पिछले 15 साल से मक्खन-मलाई बना रहे हैं। जितेंद्र कहते हैं, “मक्खन-मलाई साल में केवल 5 महीने ही बिकती है। नवंबर में ठंड की शुरुआत से इसका बिकना शुरू हो जाता है। होलिका दहन के बाद ये बाजार से गायब हो जाती है।”
मक्खन-मलाई खाने का तरीका भी खास है। मिट्टी के प्याले में भरे हुए मक्खन को मिट्टी के चम्मच से खाने का मजा ही कुछ और है। ये मिट्टी का चम्मच प्याले को तोड़कर ही बनाया जाता है।
करीब 50 दुकानें, 6 करोड़ का कारोबार
लखनऊ में मक्खन-मलाई की करीब 50 दुकानें हैं। लेकिन इसे गली-गली जाकर साइकिल पर बेचने वालों की कोई गिनती नहीं है। कारोबारी मुकेश के अनुसार, आम दिनों में इस मिठाई की सेल प्रति दुकान करीब 400 किलो है। संडे और त्योहारी सीजन में इसकी डिमांड हर दिन 1000 किलो तक बढ़ जाती है। एक अनुमान के मुताबिक मिठाई का सलाना कारोबार 6 करोड़ से ज्यादा का है।
सेहत के लिए दिन में अमृत, रात में जहर
दुकानदार जितेंद्र के मुताबिक, मक्खन-मलाई खाने का भी समय है। क्योंकि ये ओस में बनती है इसलिए ये आंखों के लिए फायदेमंद है। चश्मा लगाने वालों को सुबह-सुबह इसे खाना अच्छा होता है। लेकिन शाम के बाद इसे खाना सेहत के लिए हानिकारक हो सकता है। इसमें चिकनाहट काफी होती है इससे आपका गला खराब हो सकता है। खराश हो सकती है।
अटल जी, कल्याण सिंह और लालजी टंडन खुद आते थे खाने
साल था 2009…अटल बिहारी वाजपेयी सक्रिय राजनीति से दूर हुए तब लालजी टंडन ने लखनऊ से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। टंडन की इस जीत के साथ यूपी की सियासत में मक्खन-मलाई की भी एंट्री हो गई। लालजी टंडन की जीत के बाद एक नारा खूब फेमस हुआ। लखनऊ के अखबारों में हेडलाइन छपी- ‘टंडन का मक्खन सबपर भारी’।
मक्खन-मलाई के व्यापारी बृजेश कहते हैं, “लालजी टंडन, कल्याण सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी खुद चौक आकर हमारी दुकान का मक्खन मलाई खाए थे। कल्याण सिंह अक्सर बीजेपी कार्यकर्ताओं को मक्खन-मलाई की पार्टी दिया करते थे।”
फिलहाल… मार्केटिंग की दरकार
मक्खन-मलाई के स्वाद ने जिस तरह लोगों को दीवाना बनाया है, इसकी पॉपुलैरिटी वक्त के साथ उतनी नहीं बढ़ पाई है। अभी ये जायका ऑनलाइन बाजार से कोसों दूर है। हालांकि, अब इसे बनाने वालों को देशभर में होने वाली डेस्टिनेशन वेडिंग और समारोह में कॉन्ट्रैक्ट मिलने लगे हैं। दुकानदारों बताते हैं कि अगर मक्खन-मलाई को अच्छा प्रमोशन मिले तो यह जायका पूरे देश तक पहुंच सकता है।
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