प्रयागराज के महंत बाबा हाथीराम करीब 200 साल पहले जिस रामलीला को अपने दम पर कराने की क्षमता रखते थे वह आज नए स्वरूप में है। अतरसुईया में महंत बाबा हाथीराम पजावा रामलीला का इतिहास बहुत ही पुराना है। इस रामलीला को खत्म कराने का प्रयास कभी अंग्रेज तो कभी मुसलमान करते रहे लेकिन यहां के लोगों ने संघर्षों के बीच रामलीला को जिंदा रखा।
इसका परिणाम यह है कि आज भी उसी स्थान पर भव्य रूप से रामलीला का आयोजन किया जा रहा है। रामलीला कमेटी के निर्देशक सचिन कुमार गुप्ता बताते हैं कि यह रामलीला प्रयागराज का सबसे पुराना रामलीला है। इस रामलीला के असिस्त्व को बचाने के लिए हमारे पूर्वजों ने बहुत संघर्ष किया है। वह भी दौर था रामदल पर मस्जिदों से गोलियां चलाई जाती थी।
कंधे पर बैठाकर राम-लक्ष्मण को लाते थे महंत बाबा
सचिन गुप्ता बताते हैं कि प्रयागराज पर अंग्रेजों का पूरा आधिपत्य 1801 में। उसके दो साल बाद शाहगंज के राम मंदिर के तत्कालीन महंत बाबा हाथीराम ने रामलीला कराने का बीड़ा उठाया। वह पहलवान भी थे। वह उन दिनों अपने कंधे पर राम, लक्ष्मण को बैठाकर और सीताजी को गोद में लेकर अतरसुइया मोहल्ले के अत्रि अनुसुइया मंदिर के आगे पजावा स्थान पर ले जाकर रामलीला कराने लगे।
रामायण के अन्य पात्रों की लीला पास पड़ोस के मोहल्ले के लोग करते थे। रामलीला कराने के बाद महंत बाबा राम, लक्ष्मण और सीता को लेकर चौक में जामा मस्जिद के सामने कुछ देर रूकते थे। वहां लोग श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के दर्शन करते थे। बाद में महंत जी ने कुंभकरण और रावण वध दो दिन वानर सेना का जुलूस निकालने लगे।
1820 में दशमी के दिन मस्जिद से चलाई गइ थी गोली
कमेटी के संयोजक राजेश मेहरोत्रा छोलू बताते हैं कि 1820 में दशमी के दिन रामदल रानीमंडी के चौराहे पर पहुंचा। मस्जिद से किसी ने रामदल पर गोली चला दी। भगदड़ मच गई, गनीमत थी कि किसी को गोली लगी नहीं। इसके बाद महंत ने दो-तीन साल तक रामदल नहीं निकाला।
तब लाला मनाेहर दास के भाई महादेव प्रसाद ने महंत जी उसे पुन: रामदल निकालने का अनुरोध किया और सुरक्षा की जिम्मेदारी स्वयं ली। उसके बाद दोनों रामलीलाओं के रामदल में आपस में प्रतियोगिताएं होने लगीं और रामदल में अनेक विकास हुए। महंत बाबा हाथी राम के रामदल में वानरों के मुखौटे बनवाए गए, जो आज भी सुरक्षित हैं।
मोमबत्ती से होती थी सजावट
कालिका प्रसाद मोहिल ने पजावा रामलीला कमेटी की स्मारिका के 1982 ई. के अंक में अपने संस्मरण में पुराने समय की रामलीला का अच्छा वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है पहले चौक में रात के समय मशाल की रोशनी होती थी। उसके बाद मोमबत्ती और फानूस की रोशनी होने लगी। और अब एलईडी और बिजली आदि से सजावट होती है। आज इस रामलीला को कराने में करीब 25 लाख रुपए की लागत लगती है।
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