17 नवंबर से काशी-तमिल संगमम की शुरुआत हो रही है। यह आयोजन महीने भर चलेगा। इसमें उत्तर-दक्षिण की संस्कृतियों, परंपरा, खानपान और शैलियों का संगम होगा। 19 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके साक्षी बनेंगे। मुख्य आयोजन काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एंफीथिएटर ग्राउंड में होगा। एक ओर इस आयोजन को लेकर काशीवासी काफी उत्साहित हैं, तो वहीं, दूसरी ओर काशी के पुरनिए कहते हैं कि काशी का कन्याकुमारी से याराना दो हजार साल से भी ज्यादा पुराना है। मगर, रिसर्च कौन करे।
आइए, एक कहानी बताते हैं कि करीब 200 साल पहले काशी आए एक तमिल परिवार की...
ऐसे ही हनुमान घाट के पास एक तमिल परिवार रहता है। यह परिवार 200 साल पहले तमिलनाडु के तिरुनेवेल्ली जिले से ढाई हजार किलो. पैदल चलकर काशी पहुंच था। यहीं हनुमान घाट पर 360 बाणलिंग स्थापित करके यहीं पर बस गया। हनुमान घाट पर रहने वाले BHU के पूर्व ज्वाइंट रजिस्ट्रार पं. काशी नाथ शास्त्री बताते हैं कि उनके परदादा के पितामह पं. लक्ष्मी नारायण शास्त्री तमिलनाडु में ताम्रपर्णी नदी के किनारे रामभजन गाने वाले एक वैष्णव थे। 1811 में उन्होंने अपने बेटे का नाम भी राम ही रखा था। राम धर्म और वेद के मर्मज्ञ थे।
तीर्थ पर निकले राम
एक समय ऐसा आया कि राम अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़कर आजीवन तीर्थयात्रा पर निकल गए। कन्याकुमारी से पदयात्रा करते हुए वे कश्मीर की वादियों में पहुंचे। वहां से तीर्थों का चक्कर काटते-काटते उन्हें 12 साल बीत गए। तब तक राम एक अयाचक भिक्षु के रूप में आ चुके थे। इसी रूप में वह काशी आए और हनुमान घाट पर भजन मठ बनाया। तीर्थ यात्रा के दौरान वह नर्मदा नदी से शालिग्राम और 360 बाणलिंग लाए थे, उसे मठ में उन्होंने कैलाश यंत्र के तौर पर स्थापित कर दिया।
काशी पहुंचा राम का परिवार
राम के काशी में होने की जानकारी उनके पिता लक्ष्मी नारायण को मिली। वे भी अपनी बहू और पौत्र के साथ बैलगाड़ी से काशी के लिए निकलते हैं। यहां पहुंचकर वे लोग भी भजन मठ में पूजा कर्म में रम जाते हैं। काशी नाथ शास्त्री ने बताया कि उनकी पीढ़ियों में कई लोग काशी में राजा विजयनगरम की सेवा में भी लगे रहे। काशीनाथ बताते हैं कि दक्षिण भारत का दर्जनों परिवार इस हनुमान गली में तीन पीढ़ियों से रहता है।
कैसे याद रखते हैं पीढ़ियों के नाम
तमिल परिवारों में दादा के नाम पर ही अपने पौत्र का नाम रखा जाता है। काशीनाथ शास्त्री ने बताया कि तमिल परिवारों की परंपरा है कि दादा और पोते का नाम एकसमान हो। यही वजह है कि हम लोगों को लॉजिकली नाम याद रखने में समस्या नहीं आती।
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